शिष्य को श्रेष्ठता की ओर निरन्तर अग्रसर रहना या ये
गुरु स्तोत्र, स्तवन आदि का पाठ करते समय एकाग्रचरा चाहिये, जिससे हृदय रूप से गुरु का स्मरण हो सके।
शिष्य को हमेशा अहंकार रहित रहना चाहिये, कितनइ भे भे द पर हो विनम्रता के साथ रहना चाहिये, मन में किततचिाााााा भी अहंकार आ गया तो शिष्य अधाोगति की ओर अग्रसग ह।ाो है। और उसकी सारी सेवा व्यर्थ हो जाती है।
शिष्य को गुरु निन्दा कभी नहीं करना चाहिये है, कइ ा भी विकट परिस्थिति में हो। शिष्य वही करें जो गुरु आज्ञा होती है, क्योंचि सुसुसुसुसु समझ कर ही उनको आज्ञा प्रदान करते हैं।
शिष्य को हमेशा मन की पवित्रता पर ध्यान देना थइतहजजा से वह गुरु अमृत ज्ञान आंतरिक रूप से आत्मसात कर े
शिष्य में गुरु से मिलने के लिये एक तड़प, के आंखों में मिलन की प्यास होनी चाहिये।
शिष्य या साधाक को अपने शरीर को हमेशा स्वस्थ रााचय े।
शिष्य की नजर हमेशा गुरु की चरणों में होनी चाहइ।९९९
शिष्य को अपने प्राणों में, हृदय में, मन-मस्तितम्े म-प्रति रोम में गुरुदेव को धारण करना चाहिये।
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