शिष्य जब तक अपने इष्ट से, गुरू से साक्षात नहीं कर लेता, तब तक उसके अन्दर विरह की आग धधकती धधकती रहती है और उसका इलाज किसी के के प प होत होत होत होत होत होत होत होत होत होत होत होत dos उसका इलाज तो इष्ट के पास ही होता है, प्रिय के पास ही होता है कि जब वे तब मैं उसमें अपने आप को समाहित कर दूँगा।।। जब प्रियतमा का यह भाव साधाक में आ जाता है, जब उसमें कोमलता आ जाती है।।।।।।।।
तुम साधनाओं के अजस्त्omin
बिना गुरू स्पंदन के तुम्हenas शरीर एक खोखला, प्रagaण रहित रक्त मज्जा का पिंड मात्र हैं।।।।।। ऐसा शरीर जीवित तो है परन्तु उसमें आनन्द नहीं हैै तुम्हारे इस दुनिया के प mí
आप साधाना करें, नहीं करें, आप सिद्धियाँ प्रagaप्त करें अथवा नहीं करें। इस बात की कोई मुझे इच्छा है ही नहीं। मुझमें ज्ञान, तेजस्विता क mí
परम marca म कृपा कर अवश्य ही हर व्यक्ति को कोई न कोई विशेषता, कोई न गुण पthág. ।
वस्तुओं के त्याग में भक्ति नहीं है। वह तो व्यक्ति की बहुमुखी प्रतिभा की अभिव्यक्ति है धर्म कभी भी मुनष्य को दैनिक कार्यों का त्याग करने को नहीं कहता, अर्थ últimos धर्म उसे केवल मानसिक असंतुलन, नैतिक बुû तथ आत्मिक अज्ञ से सेरbar प प प को को।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।
आप जिस प्عaga के है उसका कारण ये है कि आप एक जैसे ही होना चाहते हैं।।।।।। यदि आप वास्तव में अलग बनन mí
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