आप साधना करें, नहीं करें, आप सिद्धियां प्रagaप्त करे अथवा नहीं करे। इस बात की कोई मुझे इच्छा है ही नहीं। मुझ में ज्ञान तेजस्विता का अंश होग mí
साधक की यात्र शून्य से प्रagaagaega होकर होकर पूba ender तक है है और गुár. जिसने ब्रह्म को जान लिया उसने गुरू को जान लिया। Ver más
नदी कभी नहीं रूकती, बहती रहती है, जब तक समुंद्र में विलीन नहीं हो जाती दौड़ती चली जाती है और समुंद्र में पूर्णता से होती है।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।। उसको नदी कहते है, उसको शिष्यता कहते हैं।
जब तुम अपने आप को शक्तिहीन अनुभव करो, जब तुम अपने आप को मृत तुल्य अनुभव करो तब तुम मेरे साथ प्عecer
बिना गुरू स्पंदन के तुम्हारuerzo शरीर एक खोखला, प्रagaण रहित मज्जा का पिंड है।।।।।।।।।।।।। ऐसा शरीर जीवित तो है परन्तु उसमें आनन्द नहीं हैै तुम्हारी इस दुनिया के प mí
जो मेरे साथ है वे बहुत बड़ा कार्य कर रहे जिस प्रकार समुंद्र ऊपर से भले ही शांत दिखाई दे, पर अंदर बड़ी हलचल होती।।।।।।।।।।।।।। ठीक ऐसे ही मेरे शिष्य हैं, ऊपर से शांत दिखते हुये भी एक नवीन सृजन के कार्य में वे सलंग्न हैं।।।।।।।।।।।।
गुरू सदैव अत्यन्त करूणा से शिष्य के हित के लिये युक्त होते हैं। Ver más गुरू ही उसे अध्यात्म की ओर प्रेरित करते हैं।
गुरू को तुम भले ही भौतिक रूप में देखो परन्तु वह तो होता है प्रagaणों का घनीभूत स्वरूप जहाँ से होता है जीवन का नवीन सृजन, इसलिये गुरू को माता औξ पित कह गय है है।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।.
जब भी कभी तुम्हाisiones जब आँखों की कोरें भीगने लगें, तब समझना कि तुमने थोड़ा-थोड़ा गुरू को पहचानना शुरू कर दिया।
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