तुम माया से जितना कटोगे, उतना ही तुम प्रकृति से जुड़ोगे और जितना प्रकृति से जुड़ोगे उतने ही स साधक बन, इसलिये प्रकृति को साधक कहा गया है।।।।।।।।।।।।। है
तुम कह रहे हो कि हम शिष्य है तो साधक के आगे की स्टेज शिष्यता है। शिष्यता प्रagaप demás करने के लिये तुम्हें ठोकर लगना अनिवार्य है क्योंकि जब ठोकर लगेगी तभी तुम निद निद्रaga से जागोगे।।।।।
तुम्हें कभी जिन्दगी में ठोकर लगे, मैं तो ऐसा चाहता हूँ कि जल्दी ही लगे ऐसा तुम्हें एहस siguez
यदि कोई गुरू तुम्हाisiones
स्थूल जगत में जो कुछ हम देखन mí
भीतर जो कुछ दुर्गंध है, उसको समाप्त करने की क्रिया को कुण्डिलिनी कहते।।।।।।।।।।।। अन्दर जो कुछ सुप्त अवस्था में है उसको जगाने की क्रिया को कुण्डिलिनी जागरण कहते हैं।।।।।।।।।।
आंतरिक जीवन के आनन्द को प्रदान करने की क्रिया को ही ध्यान कहते हैं, साधना कहते, समाधि कहते।।।।।।।।।।।।।।।।।।
साधक अपने आप पूर्णत्व तक नहीं पहुँच इसके लिये यह जरूरी है कि उसके पास समर्थ और सक्षम गुरू हों, इसके लिये जरूरी है कि वह गुरू को पहचानता हो, इसके लिये जरूरी है कि उस शिष्य में पूर्ण आत्म समर्पण हो और इससे भी ज्यादा जरूरी है कि शिष्य अपने आप को पूर्ण रूप से मिटा दे।
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