समाज व्यक्तियों से गठित होता है, समाज से व्यक्ति नहीं गठित होता और जो समाज के अनुivamente गठित पatar दीक्षा और साधना तो विपरीत क्रम में चलने की क्हिा௯ न केवल सामाजिक मान्यताओं के विपरीत क्रम में वरन् जो दुख, दैन्य, अभाव, दारिद्रय, भाग्यहीनता व तनाव किन्हीं कारणवश स्वयं की भाग्यलिपी में अंकित हो गया हो, उसके भी विपरीत क्रम में चलने का। दीक्षा तो जीवन के नवनिर्माण की क्रिया ही होती है जिसको साधक स्वयं साक्षात् कर सकता है।
जीवन की सफलता इसी में है कि हम सामान्य मनुष्य होकर भी उस ब्रह्माण्ड के रहस्यों को समझें, अन्य लोकों की यात्रा कर उसके रहस्यों को समझें, और यह सब कुछ संभव है, कुछ विशेष दीक्षाओं के माध्यम से ।अखिल ब्रह्माण्ड की सृजनकर्त्ती होने के उपरांत भी देवी का मूलस्वरूप कौमार्ययुक्त ही माना गया ॹ केवल मानव व अन्य योनियों ही नहीं, प्रतिक्षण असंख्य ब्रह्माण्ड की उत्पति करने के उपरांत भी देवी को अक्षतयोनि कहा गया है, जो किसी आश्रय से सर्वथा मुक्त है वही शक्ति है और यही कारण है, कि एक देवी भक्त एवं साधक किसी अन्य आश्रय से सर्वथा मुक्त होते हैं, अपने आप में सम्पूरorar. तंत्र के आदि रचयिता भगवान शिव है, और जो साधक शिव की पूजा, अर्चना, साधना, रूद्राष्टाध्यायी का पाठ पूर्ण विधि विधान से श्रावण मास में नित्य सम्पन्न करते है तो शिव कामाख्या शक्ति स्वरूप में साधक की सम्पूर्ण इच्छायें निशि्ंचत रूप से सम्पन्न होती ही है ।
उचित साधना पद्धति का चयन करके, अपने जीवन की आवश्यकताओं और प्रagaथमिकत का निर्णय करके उचित माध्यम तथा उप va अपने जीवन के विविध द्वन्द्व, वृथा, मोह, तनावों को समाप्त कecer
महादेवोहऽम्कामाख्या शक्ति दीक्षा तो जीवन का सौभाग्य है जिसको प्राप्त कर साधक अपने जीवन को आनन्दप्रद, ममत्व, स्नेह, धन, ऐश्वर्य, भोग, विलास, सौभाग्य समस्त सिद्धियों से युक्त होकर महादेवोहऽम् और कामाख्या शक्ति से युक्त हो सकेगा और शत्रु बाधा, अभाव, कष्ट , पीड़ा, तनाव, चिन्ताओं से विर्निमुक्त हो जाता है और पूर्ण endr
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