आवश्यक इसलिये क्योंकि हर नदी बहती है केवल और केवल सागर में विलीन होने के लिये औ Est. परन्तु तट पर पहुँच कर वहाँ खड़े रहने से कुछ नहीं होगा, आगे बढ़कर संभाला होगा उसमें।।।।।
गुरु भी खुली बाहों से सदा खड़ा रहता है। निमंत्रण उसका हर क्षण बन mí. उसकी ओर से कोई विलम्ब नहीं, वह कभी नहीं कहता, नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं ¡!
कहता भी है, तो पहल आपकी ओर से होती है। वह तो चाहता है आप उसी क्षण, उसी लम्हे में सब त्याग कर, स्वयं को भूला कecer परन्तु आप ठिठक जाते है। ऐसे खुले निमंत्रण से एकाएक आप भयभीत हो जाते है, संकोच करते है, भ्रमित होते हैं और अपने व्यर्थ के आभूषणों-अहंकाocar, मोह, लोभ से चिपके चिपके हते है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है चिपके चिपके eléctrica eléctrica eléctrica eléctrica यह खेल है सब कुछ खो देने का।
आप जिस भार के तले दबे जा रहे है है, वह कोई परेशानियो या सांसारिक समस्याओं के कारण नहीं अपितु आपके अहंक • के क क है razón कहत नहीं में में में में में में में में में में में में में में में में सब सब सब सब सब में सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब सब , ना ही परिवार त्यागने का तुमसे आग्रह कर रहok है, अपितु कह ivamente है-
अपनी समझ-बूझ को एक तरफ रख दो, क्योंकि इस यात्र में यह बाधक ही।।।।।।।।।।।।।। जब तक इसका त्याग नहीं होगा, वह ivamente
अन्दर तुम्हारे एक बीज है, एक आत्मा है--उसको जगाना है, उसको पुष्पित करना है, तभी जीवन का वास्तविक आनन्द स्पष्ट होग va होग होग होग होग होगija तब सांसारिक कार्य-कलापों में भीतर आप एक अनोखे आनन्द में डूबे ¢, तब संसार अपनी समस्याओं और कठिनाइयों के बावजूद एक सुन्दर उपवन सम दिख razón देग देग देग देग जिसमें क timo समझाने से यह बात समझी नहीं जा सकती, पढ़ने से कुछ प्र sigue. हाँ इतना अवश्य हो सकता है, कि गुरु की वाणी से आप एक क्षण के लिये अपनी निद्रaga से जागृत हो जाये और जान लें, कि गुरु ठीक कह ह va है।।।।।।।।।।।।।।।।।।।। तो उस क्षण पूर्ण चैतन्य बने रहना। दोबारा सो मत जाना। वही क्षण महतutar. यह विज्ञान है ही प्रैक्टिकल, मात्र पढ़ने से काम नहीं चलेगा। और सदगुरु तक आप पहुँच गये है, तो इस प्रक्रिया में उतरना और भी आसान है।।।।।। कenas बस इतना है, कि अपनी बुद्धि को एक तरफ रख छोड़े, उसे बीच में न लाये।।।। न न ल।
गुरु देने को तैयार है, एक क्षण में यह ivamente इसके लिये वर्षो का परिश्रम नहीं चाहिये। हाँ, पहले तो आपको तैयार होना पडे़गा। गुरु तो अपनी अनुकंपा हर वक्त संप्रेषित करते ही रहते हैं, उसे ग्रहण आपको करना है।। गंगा तो विशुद्ध जल सद mí यह प्रैक्टिकल क्रिया है। बैठे-बैठे आप प्यास नहीं बुझा सकते और अगर यह सोंचे, कि झुकूंग mí
अगर शिष्य या फिर एक इच्छुक व्यक्ति प्रयास करने के बाद भी बुद्धि से मुक्त नहीं हो पाता, तो गुरु उस पर प्रहार करता है और यही गुरु का कर्त्तव्य भी है, कि उस पर तीक्ष्ण से तीक्ष्ण प्रहार करे, तब तक जब तक कि उसके अहंकार का किला ढह न जाये। क्योंकि भीतर कैद है आत्मा और विशुद्ध प्रेम। जब यह बांध गिरेगok तभी प्रेम, चेतना और करुणा का प्रवाह होगा, तभी सूख चुके हृदय नई बहार का आगमन होगा, तभी पथरaga कठोर आँखों में प प की अद अद अद चमक razón।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।. -
कठोर कार plary सौंप कर, परीक्षा लेकर, साधना कराकर और जब सभी सभी निष्फल होते दिखे तो विशेष दीक्षा देकर वह ऐसा कर सकता।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।। है है है।।।।।।।।।।। है है।।।। है है।।।। है।। है।।।।।।।। है है। है है।।।।।।।. पηorar
गुरु का भी धर्म है, कि विशेष दीक्षाओं के माध्यम से शिष्यों की समस्याओं का समाधान करे और इसके लिये गुरु विशेष क्षणों का चुनाव करता है। है। है है है है है है है है है है है है है है है।। है है है है है है।। है है है है है है है है है है।।। है है है है है है है है है है है है।।। है है है है है है है। है। है है है है है है। है है है है elécitario वह जानता है, कि बहाocar आने पर ही फूल खिलते खिलते, इसलिये ऐसे क्षणों को वह चुनता है, जो सैकडों वर्षो बाद आते है और ऐसी ऐसी उच उच प uto प प प uto uto िय लिये स स स स अनुकूल है है।। है।।।।।।।।।। उच उच्च प् razón. दीक्ष mí
और जान लें, कि सद्गुरु का कोई निजी स्वाisiones उसका उद्देश्य तो मात्र इतना है, कि व्यक्ति को उस परम स्वतंत्रता का बोध करा दे, जिसे पाकर कोई भी सांसारिक समस्या, दुःख, पीड़ा उसके मन पर आघात नहीं कर पाती और पूर्ण निश्चिन्त हो वह सदा बिना भय और संशय के उच्चता एवं सफलता की ओर अग्रसर होत sigue.
तबएक अनूठा संतुलन स्थापित हो जाता है। आज हर मनुष्य के जीवन में असंतुलन है। सांसारिक जीवन में वह इतन mí उस पक्ष को सर्वथा उसने अनदेखा कर दिया, जिसके कारण संसार के दुःख एवं पीड़ा ¢ आघात उसे हिल हिला कर रख देते देते, जैसे आंधी एक पत पतguna।।।।।। ।timo।।।। पत पतguna इसी असंतुलन के कारण आज संसार में इतना पाप, असन्तोष, आतंकव sigue
सांसारिक जीवन और आध्यात्मिक जीवन में सन्तुलन द्वाisiones दीक्षा कोई सामान haba ¡Adelante! प्रत्येक व्यक्ति, प् Est.
दीक्षा वह अनेकों प्रकार से दे सकता है- मंत्र के द्वार marca, स्पर्श द्वारuerzo या मoque म Dav Est. अनेकों लोग विशेषतः तथाकथित वैज्ञानिक संदेह प्रकट कर सकते हैं मंत्रों के सन्दर्भ में, परन्तु अगर वह पूर्ण गुरु है, तो सिद्ध कर देता है, कि वैदिक मंत्र प्रमाणिक ही नहीं, अपितु इतने शक्तिशाली हैं, कि क्षण में व्यक्ति का रुपान्तरण कर दे।
व्यक्ति तैयार हो, औ sigue. व्यक्ति के जन्मों की न्यूनताओं को नष्ट करना पडता है अपने तप द्वारा और न केवल उसकी न्यूनताओं अपितु उसके माता-पिता, उसके पूर्वजों की समस्त न्यूनताओं को समाप्त करना होता है, क्योंकि वे सब संस्कारो द्वारा, आनुवांशिक प्रक्रिया द्वारा उसमें विद्यमान होती हैं। उसके तन की की, उसके मन की, उसके ivamente
एक साम flavor वह तो बस अपनी तप ऊर्जा को हर क्षण प्रवाहित करता रहता है और जो भी बुद्धि से मुक्त हो सके, इस चेतना को ग्रहण कर Davतbar त हो सकत है है है है है।।।।।।। तब विशेष दीक्षा की आवश्यकता नहीं। सद्गुरु के शरीर से हर दम तप शक्ति संप्रेषित होती रहती है। यदि आप उसे ग्रहण कर लें, तो— ग्रहण आपको करना है, गुरु कोई मतभेद नहीं करता। उसके लिये सभी बराबर है। आप तैयार है, तो उस चेतना को अंगीकृत कर लेंगे और चैतन्यता प्रagaप्त कर लेंगे, यह भी दीक्षा ही है एक प्रक • से से होत गु गु की ही शक द द uto एक एक प प प favor
परन्तु स्वतः यह न हो पाये, तो गुरु विशेष तरीके अपनाता है और इसके लिये प्रयोग करता है मंत्र दीक sig. हाँ, इनका प्रयोग तभी गुरु करता है, जब शिष्य स्वयं ग्रहणशील नहीं हो पाता। बहुत से उद sigue. परन्तु ऐसा हुआ केवल उनके साथ जो अहंकार रहित थे थे, जो बुद्धि से पूर्ण चैतन्य, शिष्यता की ओर अग्रसuestos उनके मन और बुद्धि के सभी द्वार खुले होते होते, कि न जाने कब वह क्षण आ जाये जब सद्गुरु से स • सguna षna.
ऐसे ही एक व्यक्तित्व थे विदुर। श्रीकृष्ण के दर्शन मात्र से पूर्ण चेतना को प्रagaप्त हुये एवं एक क्षण में परब्रहedo में हो गये।।।।।।। गये। गये। गये।। गये। गये गये।। गये गये बुद्ध के शिष्य थे आनन्द-तीस वर्ष तक बुद्ध उन पर प्रहार करते ही रहे, तब कहीं उनका अहंकार गला और वहीं एक शिष्य थे राहुलभद्र जो बुद्ध की शरण में पहुँचे नहीं, कि पूर्ण रुपेण कुण्डलिनी जाग्रत हो गई और वे बुद्धत्व को प्राप्त हो गये । होता है ऐसा! और इस प्रक demás को कहा जाता है 'विशुद्ध दीक्षा' - गुरु के समीप गये नहीं, कि चैतन चैतन्यता को प्रagaप्त कर लिया लिय gaste परन्तु इसमें शिष्य का तैयार होना आवश्यक है। अगर वह अहं को छोड़ नहीं पाता, तो यह संभव नहीं और तब गुरु विशेष दीक्षा का प्रयोग करते है।।।।
विशेष दीक्षा क्या है, यह पहले जान ले। एक माँ कैसे भिन्न है अन्य मानवों से। शरीर तो वैसा ही होता है-मांस, मज्जा, हड्डी, लहु ि०आ० परन्तु उसमे ममत्व होता है, मातृत्व की भावना होती है, जो वह समग्रता से, पूर्णता से अपने में उडे़ल देती है। है। है है है है है है है है है है है है है है है। है है है है वैसी ही करुणा, वैसा ही प्रेम होता है गुरु के मन मे आपने देखा होगा, कि जब शिष्य झुकता है गुरु के चरणों में तो वह पीठ पर, सिर पर हoque ह ηanto है और मुख से उच्चendr. क्यों हाथ रखता है? आपने शायद गौर नहीं किया। शरीर में विद्यमान, आत्मा में मौजूद प्रेम, तप शक्ति दो प्रकार से प्रवाहित हो हैं हैं-स्परorar
ध्यान दे तो सभी भावनाओं का संप्रेषण नेत्रों के माध्यम से होता है।।।। घृणा करे तो नेत्रों से, क्रोध क¢ तो तो नेत्रों से और प्रेम करें तो भी नेत्रों से ही भ भ raz वgon होती है।।।। है होती होती है है है होती है है है है होती होती होती होती होती होती होती होती होती होती होती आपको कुछ बोलने की आवश्यकता ही नहीं। मेरी आँखे आपको बता देगी, कि गुरुजी खुश हैं या नार gaso मैं बोलूं अथवा नहीं बोलूं आप भ mí इसलिये क्योंकि उनमें से भावनाये प्रवाहित होतै Ver más
तो गुरु की आत्मिक तपस्या का अंश आँखों से प्रवFहित होता रहतok है।।। हाथ की अंगुलियों के माध्यम से यह XNUMXम्भव विशेष दीक्षा का अर्थ है शिष्य गुरु के सामने आये और गुरु एक सेकण्ड उसकी आँखों में ताके और शक्ति का एक तीव्र प्रवाह उसके नेत्रों के माध्यम से उसके शरीर में एक आलोड़न, एक प्रक्रिया को आरम्भ कर देगी, उसकी निद्रा को भंग कर देगी और उसे पूर्ण चेतन्य कर देगी।
इसके लिये आवश्यक नहीं कि गुरू पाँच मिनट तक आँखों में घूरता रहे। ¡Adelante! उस व्यक्ति की आँखों में तो आपने एक मिनट तक देखा और मुझे केवल दस सेकण्ड। एक दो या दस मिनट दृष्टिपात से कोई ज्यादा तपस्या का अंश नहीं जायेगा। इसके लिये तो एक क्षण भी बहुत होता है। एक सेकण्ड लगत mí गुरु जानता है, कि मस्तिष्क में किस स्विच पecer तो विशेष दीक्षा यानी गुरु ने एक पल आँखों में देखा और अगले क्षण ivamente शिष्य यह य siguez
तब उस तपस्या शक्ति के प्रवाह से शिष्य की सुप्त दिव्य शक्तियाँ एकाएक जागृत होने हैं हैं।।।।।।।।।। दीक्षा के भी अनेको चरण हो सकते है औecer चैतन्यता का अर्थ है, कि व्यक्ति आत्मा से जुड़ गया है तथा आगे आध्यात्मिक उन्नति के तैय तैयguna है।।।।।।। विशेष दीक्षा द्वारículo चैतन्यता प्रदान करने की पहली प्रक्रिया है राज्याभिषेक दीक्षा। दीक्षा के कई क्रम है-corresponda marca, पट्टाभिषेक, साम्रija और इनके पश्चात तीन अन्य दीक्षाये है है है है है है है। है है है है राज्याभिषेक दीक्षा का अर्थ है, व्यक्ति के अन्दर की सारी वृत्तियां जागृत हो और कुण्डलिनी का एकदम जागरण हो, विस्फोट हो और इस प्रकार आज्ञा चक्र जागरण द्वारा उन सब दृश्यों को व्यक्ति देख पाये, जो कि सामान्यतः सम्भव नहीं। वे दृश्य कहीं दूर किसी घटन mí एक प्रकार से व्यक्ति सूक्ष्म शरीर द्वारा भी आने-जाने में सक्षम हो जाता है तथा एक स्थान पर बैठकर कही भी भी घटनाओं का अवलोकन सकतर सकता है।।।।।।।।।।
दीक्षा के दूसरे क्रम में है ब्रह्माण्ड पारorar फिर वह सन्यास में रहे या गृहस्थ में उस पर बाहरी वृत्तियों का कोई भी प्रभाव नहीं पड़ता। ऐसे ही जैसे श्री कृष्ण थे, चाहे वे गोपियों के साथ थे य mí. उनके ऊपर न युद्ध क mí इसीलिये उन पर किसी प्रकार का कोई आक्षेप नहीं सथाा
इस प्रकार की उच्च दिव्य स्थिति को प्रagaप्त करने की पहली सीढ़ी है र isiones इसके बाद और एक दीक्षा होती है और जो छः दीक्षाये हे हे उसके पश्चात् ही व्यक्ति पूर्णता प्राप्त करतै इन दीक्षाओं को गुरु तभी प्रदान करता है, जब व्यक्ति में समर्पण की भावना जाग्रत हो और जब गुरु यह अनुभव करे, कि शिष्य अब तैयार है। जब व्यकorar. अगर आप समझे समझे, कि मात्र सोच लेने से सिद्धाश्रम पहुँच जायेंगे, तो यह सम्भव नहीं है।।।।।।। इसके लिये अन्दर एक तीव्र चेतना का जागरण आवश्यई यकै इस प्रकार की विशिष्ट दीक्षाओं के लिये शिष्य को गु¢ की सेव सेव भी करनी पड़ती और जब गुivamente समझत समझत है, कि व्ति गुरु सेवί desplaz चाहिये, कि वह इस दीक्षा का अधिकारी, बन
मात्र गुरु शब्द उच्चारित करने से शिष्य नहीं बना जा सकता और न ही अन्दर की वृत्तियों को जाग्रत किया जoque सकत है।। है है। है है है है है है है है है है है है है है है है है. वृत्तियों का अर्थ है-क debe. यानि पूर्ण रुप से गुरु की भावनाओं में लीन होना। स्वयं के विचार, स्वयं की कोई इच्छा रहे ही नहीं। यह कठिन अवश्य है, मगर गुरु के सान्निध्य में यह स७ स८ गुरु से दूर रहकर इस प्रकार की प्रक्रिया सम्भव नहीं हो सकती।।।।।।।।।।। भावाभिव्यक्ति तब होती है, जब गुरु शिष्य का परस्पर एक गहनसम्बन्ध बनता है और सम्बन्ध का सेतु तैयार होता है सेवा के म Dav ध से।।।।।।।।।।।।।।। से।।।।। से आप निःस्वारorar.
जब मैं सन्यास जीवन में था, तो बड़ी कठिनत mí गुरुसेवा, गुरुनिष्ठा, गुरुभक्ति के साथ निरन्तर पठन, चिंतन, मनन के दgon. श्रीकृष्ण ने सांदीपन ऋषि से दीक्षा ग्रहण की तब ऋषि अनुभव क demás थे थे, कि यह तो कृष्ण उन पर अनुकम्पा कर íbO है है, उन्हें गुरु का सम्मान ।nas कृष्ण को आवश्यकता नहीं थी, परन्तु एक औपचारिकता, एक सामाजिक कर्त्य तो निभाना था ही।।।।।।। सांदीपन जानते थे, कि इन्हें भला वे क्या प्रदान कर सकते है।।।।।।।।।।। परन्तु एक सामाजिक प्रक्रिया थी जिसे निभाना था। वे गुरु भी ऐसा अनुभव कर ¢ थे थे, मन ही मन कह ivamente थे- हम आपको र ही दीक क क favor आप हमें समझा सकते हैं, कि साम्रijaज hablo हम तो निमित्त मात्र है। आप शायद हमे सौभाग्य प्रदान कर ¢ हे है और हमे गुरु शब्द से सम्मानित कर ¢ है है।।। है।।।
कई ऐसे गुरु मिले मुझे अपने परम पूज्य गुरुदेव भगवदपाद स्वामी सच्चिदानन्द के पास पहुँचने से।।।।।।।।।।।।। पenas ये ये दीक्षाये मात्र समाजीकरण का एक अंग थी, मात्र एक औपचारिकत tomar! वह तो मैं जानत mí उस महासमुद्र में छलांग लगाने के एक पहला कदम। अपने आप में यह समutar. इसके बाद की प siguez
नर से ना rod " इन दीक्षाओं के लिये केवल इतन mí
¿Está bien? यदि 'गुरु' शब्द का उच्चाisiones से पहले उठे और बाद में सोये। एक आहट हो और चौकन्ना हो जाये। हल्का सा इशारा हो और समझ जाये, कि अब गुरु को क्या आवश्यकता है।।।। इतनी तीव्र भावना हो।
इस दीक्षा के बाद गुरु-शिष्य के तार मिल जाते हैं। यह दीक्षा अन्दर की सभी वृत्तियों को और कुण्डलिनी को आज्ञा चक्र तक पहुँचाने की क्रिया है।।।।।।।। इसके माध्यम से आज्ञा चक्र की सारी शक्तियाँ शनैः शनैः जाग्रत होती है और अंततः कुण्डलिनी आगे जाती है और सहस्त्रva पर पहुँचती।।।।।।।।।।।। है है।। है।।।।। है है है है है है। है है सहस्त्रार सिर में एक ऐसा भाग है जहाँ एक हजार नाडि़याँ अपने आप में ऊर्ध्व यानि उल्टी होकर अमृताभिषेक करती है तथा जब सहस्त्रार जागृत हो जाता है, तो यह अमृत झरने लगता है और समस्त शरीर में फैल जाता है, जिसके कारण अद्भुत आभायुक्त एवं कान्तिवान हो जाता है।
आपने देख mí इसका अर्थ है, कि भगवान विष्णु क mí ऐसा ही सहस्त्रaga हर मनुष्य के सिर में स्थित है, उस स्थान पर जहाँ सिर में चोटी होती है।।।।।।।। वहअमृतवर्षा पूरे शरीर को अमृतमय बना देती ऐसे व्यक्ति के शरी llegar किसी में ग्रagaह demás शक्ति हो तो उसे एहसास हो जायेगांकि हालांकि आम आदमी ऐसा नहीं कर पायेगा, पσ थोड़guna थोड़ा भी भी चेतनί uto सुगन despla.
ऐसा व्यक्ति विदेह हो जाता है। संसार की कोई चिन्ता उसे नहीं रहती। वह एक ऐसे आननutar उसका जीवन काव्यात्मक हो जाता है, संगीतमय हो ज mí शक्कर आप खा सकते हैं परन्तु उसके स्वाद का वर्णन नहीं कर सकते। आप कहेंगे मीठा है, तो मीठी तो बहुत चीजें होती हैं, परन्तु स्वाद कैसा है? ¡Adelante! गुलाब की सुगन्ध को भी शब्दों में नहीं बाँध सकतेे ठीक उसी प्रकार उस आनन्द की अनुभुति भी शब्दों में नहीं समझाई जा सकती। वह तुरीयावस्था होती है और ऐसे व्यक्ति को कोई एक बार देख लें लें तो उसे भूलाया ही नहीं जा सकता।
एक अद्भुत सम्मोहन पैदा हो जाता है, उसके व्यक्तिथ वह व्यक्ति किसी को सम्मोहित करने का प् Est. ऐसा चैतन्य प्रवाह उसके शरीर से होता रहतok है, कि खींचे चले चले आते।।।।।।।।।।।।।।।।। गुरु और शिष्य में एक बहुत बड़ा गैप (दूरी) होती है, जब तक वह भर नहीं जाता शिष्य उस स uto पन केवल केवल केवल को N tercidor है, कि अब यह व्यक्ति पूर्ण समर्पित है और तैयार है, तो वह उसके शरीर का, उसके का, उसके हृदय का रुपान्तरण कर देता है है।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।। है।।.
इस शरीर की क्षमताये असीम और अद्भुत है यह शरी¢ दूर-दूर की घटनाओं का एक स्थान पर बैठे-बैठे अवलोकन भी कर सकता है, किसी ग्रह शुक्र, शनिatar एक बार में वह कई स्थानों पर प्रकट हो सकता है। एक स्थान में किसी कार्य में लीन रहते हुये वह अन्य किसी दूरस्थ स्थान की घटनाओं को सकत सकत gaste है।।।।।।।।
ऐसा तब होता है, जब सहस्त्र razor no अंतिम दीक्षा अमृताभिषेक होती है और तब व्यक्ति के शरीर से अष्टगन्ध प्रवाहित होने लगती है और सामान्य लोग बेशक अष्टगन्ध का पूर्ण एहसास न कर पायें, परन्तु कहीं न कहीं सूक्ष्म रूप से वह सुगन्ध उनको प्रभावित करती है और वे खींचे चले आते है और सद्गुरु प्राप्त करना भी बड़े सौभाग्य की बात है य mí
सामीप्य का लाभ भी हर एक नहीं उठा पाता। कृष्ण कौरवों के भी उतने ही समीप थे, जितने वे पाण्डवों के थे थे, परन्तु भावना दोनों पक्षों की भिन्न थीर इसीलिये कृष्ण ने प पguna को carta. दिव्य दृष्टि है आपके पास, तो आप देख सकते है, कि सूक्ष्म ivamente में कैसे सिद्धाश्रम के आक आकर मेरे समीप ज जाते है है है है है है
वे मुझे छोड़ना नहीं, किसी भी हालत में और मुझे भी उनसे स्नेह है, उन्हें छोड़ नहीं सकता। गुरु शिष्य को नहीं छोड़ सकता। मेरे मना करते-करते वे आते ही है। जब दिव्य दृष्टि प्राप्त होती है, तो जैसे मैं देख सकता हूँ आप भी उनको देख सकते है और विराट स्वरुप को दिखाने के लिये चर्म-चक्षुओं के अलावा अन्य सूक्ष्म दृष्टि देने की आवश्यक है और यही प्रक्रिया है राज्याभिषेक आदि दीक्षाओं की-पहले ज्ञान दृष्टि जागृत होती है फिर आत्म दृष्टि, उसके ब mí.
हम गुरु को वास्तव में पहचान सकते हैं। उससे पहले हम गुरु में स्थित नारायण को नहीं पहतइथसास हमारी दृष्टि मात्र उसके नर स्वरुप तक सीमित रथहतै आप जो पहचानते है, वह एक नर है और अगर उस नाisiones ऐसे दीक्षाये देना गुरु के लिये परम आवश्यक है ताकि यह ज्ञान, यह अमूल्य धरोहर लुप्त न हो जाये। आने वाली पीढि़यों के पास न तो ये मंत्र होंगे, न यह ज्ञान होगा, न दीक्षा देने की प्रक demás होगी।।।।।।।।।।। सब समाप्त हो जायेगा औecer यह सब ज्ञान, ये सब मंत्र, लोगों को ज्ञात ही नहीं ूो लोगों ने तो क्या पण्डितों ने भी सुने ही नहीं होंगे और मुझे बड़ा तनाव, बड़ी चिनgon. किस प्रकार से होगा?
कैसे यह ज्ञान बना रहे? समझ नहीं आता है। परन्तु विधाता अवश्य ऐसे शिष्य देंगे जो इस ज्ञान को आत्मसात कर सकेंगे।।। सकेंगे।।। आत्मसात करने के लिये आपको भगवे कपड़े पहनने की जरुरत नहीं। इसका आधार तो सेव mí आपकी कोई इच्छा, स्वार्थ नहीं हो। सेवा के बाद यह भावना न आये कि मैं कुछ कर ominal भावना हो, कि गुरु करा रहok है और मेरे माध्यम से कर gaste वे गुरु कह रहे थे- '' हमार marca बड़ा सौभाग्य है, कि हम निमित्त बने, आपको दीक्षा देने।।।।।।।।।।।।।। शायद न ज siguez हजार दो हजार स tomar. परन्तु प्रतीक ही हम बनें, यह बड़ी बात है। ब्रह्माण्ड के, काल के पटल पर यह घटना तो अंकित हो ही गई, कि हम बैठे है औecer
अतः सद्गुरू निखिलेश्वuestos नन जी के अवतरण पर्व जो कि सूर्यग्रहण व अक्षय धनदा तृतीया युक्त महोत्सव पर 'सूर्यग तेजस vendedor ऐसी उच्च दीक्षा आप सदगुरु से प्र sigueal
'' आशीर्वाद आशीर्वाद आशीर्वाद''
''परम् पूज्य सद्गुरूदेव कैलाश श्रीमाली जी''
Es obligatorio obtener Gurú Diksha del venerado Gurudev antes de realizar cualquier Sadhana o tomar cualquier otra Diksha. Por favor contactar Kailash Siddhashram, Jodhpur a Correo electrónico , Whatsapp, Teléfono or Enviar para obtener material de Sadhana consagrado, energizado y santificado por mantra, y orientación adicional,
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