धन हो तो आदमी को लगता है मेरे पास कुछ है, पद हो, तो लगता है मेरे पास कुछ है, ज्ञान हो तो लगता है मेरे पास कुछ।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।। है eléctrica eléctrica ये सब साधन है। ये सब आलंबन है। ये सब आश्रय है। इनके आधार पर आदमी अपने अंहकार को मजबूत करता है। साधक तो वे है, जिनके पास कोई साधन नहीं, जिनके पास कुछ नहीं नहीं। कुछ भी नहीं है क mí क्योंकि जो नग्न खड़ा है बिना वस्त्रोँ के, वह भी हो सकता है अपने त्याग को बन बना ले और कहे, मेरे पास त्य Chr. मेरे पास कुछ है। तो फिर आलंबन हो गया। और जब आपके पास कुछ है, तो आप परमात्मा के द्वार पर पूर्ण भिक्षु की तरह खड़े नहीं हो पाते, आपकी अकड़ कायम हे जाती है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है objetivo
साधक का अर्थ ही यही है कि हम जान गये यह बoque कि सुatar कितना ही धन जोड़ो, आदमी निर्धन ही रह जाता है, भीतर गरीब ही रह जाता है और कितनी शक्ति क • आयोजनatar पदचाप किये आ जाती है। सारी सुरक्षा का इंतजाम पड़ा रह जाता है और मिट हााा साधक इस बात की प्रज demás, इस बात की समझ है, अंडरस्टैडिंग है कि सुरक्षा करके भी सुरक्षा होती कहां है! हो भी जाती, तो भी ठीक था। होती ही नहीं, हो ही नहीं पाती। सिenas धोखा होता है, लगता है कि हम सुरक्षित है, हो नहीं पाते सुरक्षित कभी
जिंदगी असुरक्षा है। असुरक्षा चारों तरफ है। हम असुरक्षा के सागर में है। कूल किनारे का कोई पता नहीं, गंतव्य दिखाई नहीं पड़ता, पास में कोई नाव-पतवार नहीं, डूबना निश्चित है।।।।।।।।। फिर आंखे बंद करके हम सपनों की नावे बना लेते हैं आंखे बंद कर लेते है और तिनकों का सहार marca बना लेते है।।।।।।। तिनकों को पकड़ लेते है और सोचते है, किनारा मिल ाथय ऐसे धोखा, सेल्फ डिसेप्शन, आत्मवंचना होती है।
साधक का अर्थ है, जो इस सत्य को समझा कि सुû ender करो कितनी ही, सुरक्षा नहीं होती है।।।।।।।।।।।।।।।। मृत्यु से बचो कितने ही, मृत्यु आती है। कितना ही चाहों कि मैं न मिटुं, मिटना सुनिश्चित है और जब सुरक्षा से सुरक्षा नहीं आती, तो साधक का अर्थ है कि वह कहता है, हम असुरक्षा में र है है।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।। elécitario अब हम राजी है। अब हम पहरेदार न लगायेंगे। अब हम तिनकों का सहारा न पकडेंगे। अब हम जानेंगे कि कोई कूल-किनारaga नहीं, असुरक्षा का सागर है और डूबना निश्चित है और मरना अनिवार vendaje है।।।।।।।।।।।।।।।।। मिटेंगे ही, हम राजी है। अब हम कोई उपाय नहीं खोजते है और जो इतने होने को राजी हो जाते है, अचानक वे पाते है, असुरक्षा मिट।।।।।।।।।।।।।।।।।।।। अचानक वे पाते है, सागर खो गया। अचानक वे पाते है, किनारे पर खड़े है।
क्यों? ¿Está bien? ऐसा चमत्कार क्यों घटित होता है कि जो सुरक्षा खोजता है, उसे सुरक्षा नहीं मिलतीxto जो असुरक्षा से रículo हो ज जा है, वह सुरículoषित हो ज ज है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है. ऐसा चमत्कार? उसका कारण है, जितनी हम सुरक्षा खोजते है, उतनी हम हम असुरक्षा अनुभव करते है।।।।।।। असुरक्षा का जो अनुभव है, वह सुरक्षा की से से पैदा होता है।। जितना हम डरते है, जितना हम भयभीत होते है, उतने हम भय के कारण अपने चारों तरफ खोजकर खड़े करते है।।।।।।।। वह जो असुरक्षा का सागर, कहा, वह है नहीं, वह हमारी सुरक्षा की खोज के कारण निर्मित हुआ।।।।।।।।।। एक दुष्टचक्र है। असुenas से बचने की जो जो आकांक्षा है, वह असुरक्षा पैदा कर देती।।।।।।।।।।।।।।। जब असुरक्षा पैदा हो जाती है, तो हमारे भीतर और बचने की आंकाक demás प्रगाढ़ होती जाती है।।।।।।।। वही आकांक्षा सागर को बड़ा करती जाती साधक का अनुभव यह है कि जो सुरक्षा का ख्याल ही छोड़ देता है, उसकी अब कैसी असुरक्षा? जिसने मरने के लिये तैयारी कर ली, जो राजी हो गया, उसकी मौत मौत मौत मौत मौत मौत मौत मौत मौत मौत मौत मौत मौत अब मौत करेगी भी क्या? वह तो उसी पर कुछ कर पाती है, जो बचता था, सुरक्षा का इंतजाम करता था कि मौत आ न जाये, मौत उसी लिये है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है eléctrico जो मौत से भयभीत ही नहीं है, जो मौत का आलिंगन करने को तैयार है, उसके लिये कैसी मौत! मौत, मौत के भय में है, उस भय के कारण हमे रोज मऱा पा पा रोज मरने में ही जीना पड़ता है, जी ही नही पाते, मरते ही रहते है।
साधक निरालंब होने को ही अपनी स्थिति मानते है। वहीं स्थिति है। वे मांग ही नहीं करते। वे कहते ही नहीं कि हमें बचाओ। वे कहते है, हम तैयार है, जो भी हो। वे सूखे पत्तो की तरह हो जाते है, हवाये जहां ले जाती है, वहीं चले जाते है।।।।।।।।। वे नहीं कहते कि पश्चिम जायेंगे कि पश्चिम हमारा किनारा है, कि पूरब जायंगे कि पूरब हमारी मंजिल है।।।।।।।।।।।।।।। वे नहीं कहते कि हवा हमें आकाश में उठाये और बादलों के सिंह tomar. हवा नीचे गिरा देती है, तो वे विश्राम करते है वृक्षों के तले में, हवा ऊपर उठा देती है, तो वे बादलों में परिभ्रमण करते है। जिनका कोई आग्रह नहीं है। जो किसी विशेष स्थिति के लिये आतुर नही ं जो भी होत mí जो बुद्धिमान है, वे सुरक्षा के लिये राजी हो जाते है और सुरक्षित हो जाते है।।।।।। साधक से ज्यादा सुरक्षित कोई भी नहीं है और गृहसutar
एक राजा बहुत बड़ा प्रजापालक था, हमेशा प्रजा के हित में प्रयत्नशील रहतok था, वह इतना कर्मठ था कि अपन सुख, ऐशो देतर marca सब छोड़कर सί समय जन जन कल कल कल ण में में लग लग लग लग लग लग लग लग लग लग लग लग लग लग लग लग लग लग लग लग लग लग लग लग लग लग लग लग लग लग लग लग लग लग लग लग लग लग लग लग लग लग लग लग लग लग लग लग लग लग लग लग लग लग लग लग लग लग लग लग लग लग लग लग लग लग लग लग लग लग।. यहां तक कि जो मोक्ष के साधन है अर्थात भगवत-भजन, उसके भी वह वह समय नहीं निकाल पाता था। एक सुबह ¢ वन वन त तरफ भ्रमण करने के लिये जा रहok था कि उसे एक देव के दर्शन हुये।।।।।।। राजा ने को को प्रणाम करते हुये उनका अभिनन्दन किया और देव के हाथों में लम्बी, चौड़ी पुस्तक देखकर उनसे पूछा, महार marca आपके ह ह में यह क क uto है-देव बोले, र बोले! यह हमारा बहीखाता है, जिसमें सभी भजन करने वाल।ह राजा ने निराशा युक्त भाव से कहा, कृपया देखिये तो इस किताब में कहीं मेरा नाम भी य या नहीं देव महाराज कित का एक पृष पृष पृष पृष पृष पृषender
¡Adelante! आप चिंतित न mí उस दिन ¢ ज के में में आत्म ग्लानि सी उत्पन्न हुई लेकिन इसके बावजूद उन्होंने इसेatar. देव महाराज के दर्शन हुये। इस बार भी उनके हाथ में एक पुस्तक थी, इस पुस्तक के रंग और आकार में बहुत भेद था और यह पहली बार से काफी छोटी थी।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।। ¡Adelante! आज कौन सा बहीखाता आपने हाथों में लिया हुआ है। देव ने कहा राजन! आज के बहीखाते में उन लोगों के नाम लिखे है जो ईश्वर को सबसे अधिक प demás है।।।।।।।।।
र sigueal ¿Está bien? देव महार gaso राजा ने आश्चर्यचकित होकर पूछा, महाराज मेरा नाम इसमें लिख लिखा हुआ है, मैं तो मंदिecer.
देव ने कहा राजन! इसमें आश्चर्य की क्या बात है, जो निष्काम होकर संसार की सेवा करते है जो लोग संसार के उपकार में अपना जीवन अर्पण करते है जो लोग मुक्ति का लोभ भी त्यागकर प्रभु के निर्बल संतानों की सेवा सहायता में अपना योगदान देते हैं उन त्यागी महापुरूषों का भजन स्वयं ईश्वर करता है, ऐ राजन! तू मत पूछना कि तू पूजा-पाठ नहीं करता लोगों की सेवा करके तू असल में भगवान की ही पूजा करता है परोपकok sirtar और निःस्व Chr. -
कुर्वनorar.
अर्थात् कर्म करते हुये सौ वर्ष जीने की इच्छा करो तो कर्मबंधन में लिप्त हो जाओगे ¢! भगवान दीनदयालु है, उन्हे खुशामद नहीं भाती बल्कि आचरण भाता है सच्ची भक्ति तो यही है कि परोपकार करो दीन, दुखियों का हित, साधन करे अनाथ विधवा, किसान व निर्धन अत्याचारियों से सताये जाते हैं इनकी यथाशक्ति सहायता और सेवा करो और यही परम भक्ति है ।
Balticzo को आज देव के माधutar जो व्यक्ति निः स्वाisiones हमारे पूर्वजों ने कहा भी है- ''परोपकाराय पुण्याय भवति'' अर्थात दूसरों की सेवा को ही पूजा समझकर कर्म करना, परोपकार के लिये अपने जीवन को सार्थक बनाना ही सबसे बड़ा पुण्य है और जब आप भी ऐसा करेंगे तो स्वतः ही आप वह ईश्वर के प्रिय भक्तों में शामिल हो जायेंगे।
निरालंब होना है और जब कोई व्यक्ति इतना साहस जुटा लेता है, तो उसे परमात्म्मा का आलंबन तत्क्षण उपलब्ध हो जाता है है है है है है है है है है है है है है है है है है हम कुछ कुछ कर लेगे, ऐसी जिनकी भ भ्erv. क्षण की भी देर नहीं लगती, परमात्मा की ऊर्जा दौड़ पड़ती है है आपके endr. लेकिन हम अपने पर ही भरोसा करते चलते है। सोचते है, अपने को बचा लेंगे। कितने लोग सोचते रहे है!
निश्चित ही, सागर के साथ एक होना खतरनाक है, क्योंकि बूंद मिट जाती है।।।।।।। लेकिन यह खतरा बहुत ऊपरी है। क्योंकि स sigue. क्षुद्रता टूट जाती है, विराट के साथ मिलन हो जाथै लेकिन विराट के साथ हिम्मत तो जुटानी पड़ती है अपनी क्षुद्र सीमाओं को तोड़ की।।।।।।।।।।।।
ये तो सब प्रतीक है कि हम नाम बदल देते है, सिर्फ इसी ख्याल से कि उसकी पुरानी आइडेंटिटी, उसका पुराना ताद • avor कल तक जिन सीमाओं से, जिस नाम से समझा था कि मैं हूँ, वह टूट जाये। उसके वस्त्र बदल देते है, ताकि उसकी इमेज बदल जाये, उसकी जो प्रतिमा थी कल तक कि लगता था यह मैं, यह कपड़ा, यह ढंग, वह टूट ज ज।।।।।।।।।।।।।।।।। ज ज ज ज ज ज ज ज ज ज ज ज ज ज ज ज ज ज ज ज ज ज ज ज ज ज ज ज ज ज ज ज ज ज ज बाहर से शुरू करते है क्योंकि बाहर हम जीते है और बाहर से ही बदलाहट की जिसकी हिम्मत नहीं, वह भीत compañía
लोग कहते है, कपड़े तो बाहर है, बदलाहट तो भीतर काााह कपडे़ बदलने तक की हिम्मत तुम्हाisiones कपड़े बदलने में कुछ भी तो नहीं बदल ivamente ह, यह तो मुझे भी पता है। लेकिन तुम कपड़ा बदलने तक क mí शायद अपने को धोखा देना आसान होगा आत्मा को बदलने की बात में, क्योंकि किसी को पता नहीं चलेगा कि बदल ¢ हो कि नहीं बदल बदल हो।।।।। खुद को भी पता नहीं चलेगा। ये कपड़े पता चलेंगे। लेकिन जो बदलने के लिये तैयार है, वह कहीं से भी शुरू कर सकता है। भीतर से शुरू करना कठिन है, क्योंकि भीतर का हमें कोई पता ही नहीं है।।।।।।।।।
भोजन करते वक्त हम नहीं कहते है कि यह तो बाहरी चीज है, क्या भोजन करना! पानी पीते वक्त नहीं कहते कि यह तो बाहरी चीज है, इसके पीने से क्या प्यास मिटेगी! प्यास तो भीतर है। नहीं यह हम नहीं कहते। लेकिन कपड़ा बदलने से क्या होगा, यह तो बाहर है और आप जो है, बाहर का ही जोड़ है जम जमा, फिलहाल। भीतर का तो कोई पता ही नहीं। उस भीतर का पता मिल जाये, इसी की तो खोज है। इमेज तोड़नी पड़ती है, प्रतिमा विसर्जित करनी पहॼह॥ वह जो हम है अब तक, उसमें कहीं से तोड़ पैदा करनी पड़ती है और अच्छा है कि सीमाओं से ही तोड़ शुरू करे, क्योंकि सीमाओं पर ही हम जीते है है अंतस हम जीते है।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।। लेकिन वस्तुतः अपनी साधना फलित तभी होती है, जब भीतर का तार जुड़ जाता है से।।।।।।।।।।।।। जब आप बैठे हो सागर के किनारे, मौन हो जाये, थोड़ी देर में सागर कौन है और आप कौन है, यह फासला गिर जायेगा। आकाश के नीचे लेटे हो, मौन हो जाये। कौन तारा है और कौन देखनेवाला है, थोड़ा फासला राा जाा
सब फासला विचार का है। वियोग विचार का है, संयोग निर्विचार का है। Ver más
एक वृक्ष के पास बैठ जाये और निर्विचार हो जाये, तो वृक्ष और वृक्ष को देखने वाला दो नहीं रह जायेंगे। जो देख रहा है वह और वह जो देखा जा रहा है, एक हो जााथै एक क्षण को भी ऐसा अनुभव हो जाये कि वह जो धूप मुझे घेरे हुये है, वह औág. यह विचार से नहीं, यह आप सोच सकते है। यह आप वृक्ष के पास बैठकर सोच सकते है कि मैं और वृक्ष एक।। तब संयोग नहीं होगा, क्योंकि अभी सोचने वाला मौजूह यह जो कह ¢ है, मैं एक हूँ, यह अपने को समझा रहok है कि मैं एक हूँ और समझाने की तभी तक जरूरत है जब तक अनुभव नहीं होता कि हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ eléctrica वृक्ष के प siguez वृक्ष के पत्ते हिलेंगे, तो लगेगा मैं हिल रहा हंँूँ वृक्ष में फूल खिलेंगे तो लगेग mí लगेगी, यह विचार नहीं होगा, यह प्रतीत होगा, यह आत्मिक अनुभव होगा।
ह म स ब ए क अपनी दुनिय mí एक ही घर में अगर सात आदमी होते है, सात दुनियऀयहू ैै क्योंकि बेटे की दुनिय mí सात दुनिया एक घर में रहे, सात जगत, तो कलह होले तऀ ैॵ सात बर्तन में हो जाती है तो सात जगत बड़ी चीजें है एक वृक्ष के पास आप भी बैठे हुये है। आप एक बढ़ई है। एक चित्रकार बैठा हुआ है, एक कवि बैठा हुआ है, एक प्रेमी बैठा हुआ है जिसे उसकी प्रेमिका मिल।।।।।।।।।।।।।।। तो बढ़ई के लिये वृकutar है। उस वृक्ष में फूल नहीं खिलते, कुर्सियां-मेजे लथह उसकी अपनी दुनिया है। उसके बगल में जो चित्रकार बैठा है, उसके लिये वृक्ष सिर्फ रंगों का एक है।।।।।।।।।।।।।
इधर इतने वृक्ष लगे है। साधारण आदमी को वृक्ष हरे दिखाई पड़ते है और हरा लगता है एक एक रंग है, लेकिन चित्रकाár. वह चित् sir lado को ही दिखाई पड़ते है आम आदमी को दिखाई नहीं पड़ते। आम व्यक्ति के लिये हरा यानी हरा, उसमें कोई और मतलब नहीं होता। लेकिन चित्रकार जानता है कि हर वृक्ष अपने ढंग स॰ से दो वृक्ष एक से हरे नहीं है। हरे में भी हजार हरे है। पत्ता-पत्ता अपने ढंग से हरा है। तो जब चित्عaga देखता है वृक्ष को तो उसे जो दिखाई पड़ता है, वह हमें कभी दिखाई नहीं पड़ता। Ver más
वहीं पर एक कवि बैठा, उसके लिये वृक्ष काव्य बन जाा कवि वृक्ष को अपने नजरिये से देखता है। वह हमें कभी ख्याल में नहीं आयेगा कि कवि किस यात demás पर निकल गया। उसका अपना जगत है। उसे खिले हुये फूलों से लदे हुये वृक्ष के नीचे, जह siguez यह उसके अपने भीतर के जगत का विस्तार है, जो वृक्ष पर फैला देता है। पूर्णिमा का चांद भी उदास आदमी को उदास मालूम पडथाााा हम अपने जगत को अपने भीतर से फैलाते है अपने चारफू हर आदमी अपने भीतर बीज लिये है अपने जगत क mí वह मेरा फैलाव है, मेरे मरने के साथ मिट जायेगा जथगह हर आदमी के मरने के साथ एक दुनिया नष्ट होती है। जो थी, वह तो बनी रहती है, लेकिन जो हमने फैलाई थी, बनाई थी, हमanzas सपना थी, वह ज जाता है।।।।।।।।। काशी में नारायण नाम के एक ब्राह्माण रहते थे। उनके कोई संतान नहीं थी। अतएव उन्होंने सौ वर्षो तक भगवान शंकर की आराधनीॾ कीॕ अन्त में भगव siguez चार वर्ष बीत गये, गर्भ से बालक नहीं निकला।
नारायण ने यह देखकर कहा-''पुत्र! मनुष्य योनि के लिये जीव तरसते है। सभी पुरूषार्थ जिसमें सिद्ध हों, उस मनुष्य शरीर का अनादर करके तुम माता के उदर में ही क्यों स्थित हो हे हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो '' गर्भस्थ बालक ने कहा, '' मैं यह सब जानता हूँ, पर मैं काल से बहुत डर हा हूँ क क क क भय न हो मैं ब बguna आऊ '' यह सुनकatar ज्ञान, वैर marca औ Esth. इसी प्रकार अधर्म, अज्ञानादि ने भी कभी उनके पास न भटकने की प्रतिज demás की।।।।।।। ऐसा आश्वासन मिलने पर भी जब वह बालक उत्पन्न हुआ तब काँपने और रोने लगा। इस पर विभूतियों ने कहा-'मांते! तुम्हार marca यह पुत्र काल से भयभीत होकर रोतok और काँपता है, इसलिये यह कालभीति नाम से प्रसिद्ध होगा। '
संस्काisiones वह माही-सागर संगम पर पहुँचा और वहाँ स्नान करके उसने पूर्वोक्त मन्त्र का एक करोड़ जप किया। लौटने पर एक बिल्व वृक्ष के समीप पहुँचने पर उसकी इन्द्रियाँ लय को प्रagaप demás हो और क्षणभर में वह केवल परमानन्द स्वरूप हो।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।। गये गये गये गये गये दो घडियों तक समाधि में सutar वह मन ही मन कहने लगे, 'मुझे ऐसा आनन्द किसी भी तीर्थ में नहीं मिला, लगता है यह स्थान अत्यन्त श्रेष्ठ है।।। है है है है है है है अतः मैं यहीं रहकर बड़ी भारी तपस्या
यों विचारकर क siguez इस प्रकार सौ वर्ष बीत गये। तदनन्तर एक मनुष्य उनके सामने जल से भरा घड़ा लेकर आया और बोला-'महामाते! आज आपका नियम पूरा हो गया। अब इस जल को ग्रहण कीजिये। इस पर कालभीति ने कहा, 'आप किस वर्ण के है। आपका आचार-व्यवहार कैसा है? इन सब बातों को आप यथार्थ रूप से बतलाइये। ¿Está bien?
इस पर आगन्तुक बोला, 'मैं अपने माता-पिता को नहीं जा मुझे यह भी पता नहीं कि वे थे और मर गये या वे थे ही ू दूसरा मैं अपना वर्ण भी नहीं जानता। " इस पर कालभीति ने कहा, अच्छा! यदि ऐसी बात है तो मैं आपका जल नहीं लेता। क्योंकि मैंने गुरूओं से ऐस mí साथ ही जो हीन वर्ण का है तथा भगवान शंकर का भक्त नहीं है, उससे दानादि लेने-देने का सम्बन्ध न करना चाहिये।।।।।।।।।।।।।।। इसलिये जलादि लेने के पूर्व वर्ण तथा आचारादि का ज्ञान आवश्यक होता है।।।।। '
यह सुनकर उस पुरूष ने कहा-'तुम्हारी इस बात पर मुझे हँसी आती है या तो तुमgon. भला, जब सब भूतों में भगवान शंकर ही निवास करते है, तब किसी की निनutar ? यह घड़ा मिट्टी का बना हुआ है। फिर अग्नि से पकाकर जल से भरा गया है। इन सब वस्तुओं में तो कोई अशुद्धि यदि कहो कि मेरे संसरorar मेरे संसर्ग से यह पृथ्वी अपवित्र हो गयी
इस पर कालभीति ने कहा- 'अच्छा ठीक! देखो, यदि सम्पूर्ण भूत शिवमय ही है और कही कोई भेद नहीं है तो ऐसा मानने वाले लोग भक्ष्य-भोज्य आदि पदार sigue. ¿Está bien? भगवान अवश्य सम्पूisiones -नीच, शुद्ध-अशुद्ध-सब में भगवान सद siguez जैसे खोटे सutar.
इस तरह भगवन के सर्वत्र व्याप्त होने पर भी देहादि में कर्म वशात् शुद्धि-अशुद्धि मानने और तन्मूलक आच fl. इसलिये मैं तुम्हारा जल किसी प्रकार ग्रहण नहतसससससक यह कार्य भला हो या बुरा, मेरे लिये तो वेद ही परम प्रमाण है।।।।।। कालभीति के इस व्याख्यान को सुनकर वह आगन्तुक बड़े जोर से हँसा और उसने अपने दाहिने पैर के अँगूठे से भूमिatar उससे वह गर्त भर गया, फिर भी घड़े का जल बचा ही रहा। तब उसने दूसरे पैर से भूमि खोदकर एक बड़ा सरोवर बना दिया और घड़े का बचा हुआ जल सivamente में डाल दिया, जिससे त तालाब भी पूरículo भ sigue
कालभीति उसके इस आर्श्चमय कर्तव्य से तनिक भी चकित या विचलित हुआ हुआ। इससे क्या हुआ? '' इस पर आगन्तुक ने कहा-'हो हो तो मुर्ख, पर बाते पण्डितों जैसी करते हो, पुर marca विदguna के के मुख से क itud यह यह श श तुमने सुन सुन सुन सुन सुन सुन सुन सुन सुन N ”
Un pozo es otra, una olla es otra y una cuerda es otra, oh Bharata.
Uno bebe y otro bebe y todos comparten por igual.
'भारत! कुआं दूसरे का, घड़ा दूसरे का और रस्सी दूसरे की है, एक पानी पिलाता है और एक पीता है, वे समान फल के भागी होते।।।।।।।।। ' अतः कूप-तालाबादि के जल में क्या दोष होगा, फिर अब तुम इस सरोवर के जल को क्यों नहीं पीते पीते पीते पीते पीते पीते पीते पीते पीते पीते पीते कालभीति ने कहा-'आपका कहना ठीक है, तथापि आपने अपने घड़े के जल से ही तो इस सरोवर को भरा है।।।।।।।।।।।।। यह बात प्रत्यक्ष देखकर भी मेरा जैसा मनुष्य इस जल को कैसे पी सकता है? " इस तरह कालभीति के दृढ़ निश्चय को देखकर वह पुरूष एक बा rod जोendr. अब तो कालभीति को बड़ा विस्मय हुआ। वह बाocar-ब fuidor आकाश में गनutar. यह देखकर कालभीति भी बड़ी प्रसन्नता से प्रणाम करके भक्ति-पूर्वक भगवान शिव की स्तुति करने लगे।।।।।। स्तुति से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने उस लिंग से प्रकट होकर कालभीति को प्águestos तुम्हारी आराधना से मैं बड़ा सन्तुष्ट हूँ। तुम्हारी धर्म निष्ठा की परीक्षा के लिये मैं ही यहाँ मनुष्य रूप में पthág. तुम मनोवांछित वर माँगो। " कालभीति ने कह sigue- आपके इस शुभ लिंग पर जो भी दान, पूजन आदि किया जाय, वह अक्षय हो।। जो इस गर्त में स्नान करके पितरों को तर्पण करे, उसे सब तीर्थो का फल प्रagaप्त हो और उसके पितरों को को अक्षय की प पσijaप demás हो '' भगवान सदाशिव ने कहा-'जो तुम चाहते हो, वह सब होगा। साथ ही तुम नन्दी के साथ मेरे दूसरे द्वारपाल बतेोल कालमार्ग पर विजय पाने से तुम महाकाल के नाम से प्रसिद्ध हो जाओगे। यहाँ करन्धम आयेंगे, उन्हें उपदेश करके तुम मेरे लोक में चले आना। ' इतना कहकर भगवान अन्तर्ध्यान हो गये।
संसार के त्याग का मतलब यह नहीं कि ये जो चट्टाने है इनको छोड़ देना, ये जो वृक्ष है छोड़ छोड़ देन mí संसार के त्याग का अर्थ है, वह जो प्रोजेक्शन है हमoque, प्रक्षेप है है उसे देना। जो है वैसा ही देखना, उस पर कुछ भी आरोपित न करना। अगर उसी वृक्ष के नीचे जिसकी मैंने बात की, एक साधक खड़ा हो, उसका कोई जगत नहीं।।।।।।।।।।।।।। साधक का अर्थ है, जिसका कोई जगत नहीं है, चीजों को देखता है, जैसी वे है।।।।।।।।।।।।। अपनी तरफ से आरोपित नहीं करता, इंपोज नहीं करता, उन पर कुछ थोपता नहीं।।।।।।।।।।।।
पहाड़ो-पर्वतों से उतरते हुये झरनों को हमने देखा है समुद्र की ओर बहती नदियों से हम परिचित है। पानी सदा ही नीचे की ओर बहता है, नीची से नीची जगह खोज लेता है, गड्ढों तक ही उसकी यात demás होती है है, अधोगमन ही उसका मoque है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है eléctrica उसकी प्रकृति है नीचे की ओर जाना। जहां नीची जगह मिल जाये वहीं उसकी यात्रा अग्नि बिल्कुल ही इसके विपरीत है, ऊर्ध्वगामी उसथ४ आकाश की ओर ही दौड़ती चली जाती है। कहीं भी जलायें उसे, कैसे भी रखे, दीपक को उलटा भी लटका दें तो भी ज्योति, शिखा ऊपर की तरफ ही भागेगी।
चेतना दोनों तरह से बह सकती है, पानी की तरह भी और अग्नि की तरह भी।।।।।।।। अधिकांश मनुष्य पानी की तरह बहते है। नीचे की ओर, हमारी चेतना नीचे उतरने का मार्ग पाते ही तत्काल ऊपर की सीढ़ी छोड़ देती, होना चाहिये अग्नि की तरह, पर हम हैं पानी की त।।।।।।।।।।।।।।।।।। हमाocar a अग अग की तरह होन mí. ऊपर की यात्रaga साथ ही साथ भीतर की भी यात्रaga है और ठीक उसी तरह नीचे की यात्रaga बाहर की भी यातن है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है eléctrica ऊपर-भीतर जितने भीतर जायेंगे, उतने ही ऊपर चले जायेंगे। जितने बहार जायेंगे, उतने नीचे चले जायेंगे। अस्तित्व की दृष्टि से ऊपecer जिन लोगों ने भी भीतर की यात demás की, उनका अंधेरा कम होता गया, ज्योति बढ़ी, प्रकाश बढ़ा।
अग्नि में एक और गुण है, उसका यह स्वभाव है, जो शुद्ध होता है, बचा लेती है, अशुद्ध को जला देती।।।।।।।।।।।।।। सोने को अग्नि में डाल दें, तो अशुद्ध है उसे जल mí अग्नि प्रतीक है, इस बात का कि जो अशुद्ध है उसे जल mí यह अग्नि का स्वभाव है, शुद्ध को बचाने के लिये आतुenas हती है।।।।। हमारे भीतर बहुत कुछ अशुद्ध है, इतना ज्यादा अशुद्ध है, कि शुद्ध का पता ही नहीं।।।।।।।।।।।।।।। कहीं होगा छिपा हुआ शुद्ध। गुरू बताये भी कि भीतर तुम्हारे स्वर्ण भी है, तो सभी कंकड़-पत्थर के सिव कुछ पाते ही नहीं नहीं नहीं नहीं के के के के के N. उसे ज्यादा देर तक अग्नि में तपाना पड़ता ये स्वर्ण जो मुझे मिले है, वे कोयले की खान से मिले हैं, कोयले की पूरी कालिमा उनमें समाहित है, उस कालिमा के बीच कहीं स्वरа दब नículo, इसीलिये को तप तप जब है है है है है है है N. तप का यही तात्पर्य है कि हम इतनी अग्नि से गुजरे कि जो भी अशुद्ध है, वह जल जाये और जो भी शुद्ध है, वह बच जाये।
इसलिये ज्ञानी, चेतन sigue. ¡Adelante! ¡Adelante! मैं अज्ञानी हूँ, तू मुझे ले चल। देवता कौन? देवता वही है, जो दिव्य है, इतना ही नहीं नहीं, जो दिव्य की ओर ले जाता है, जो दिव्य की ओर उन्मुख करता है, वह देवता है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है marí इसलिये लोगों ने कहा गुरू देवता है, जहां दिव्यता की ओर इशारा मिल जाता है, संकेत मिल जाता है, जिसके पास पहुँच कर असीम शांति की अनुभूति होती है, जिसके पास बैठने से हृदय की वीणा झंकृत हो जाये, वही देवता है।
¡Adelante! मुझे सन्मारorar यह पुकार असाधारण है, क्योंकि हमारी प्रत्येक वृत्ति, हमारी प्रत्येक वासना, हमारी प्रत्येक इच्छा असद् म्ग की त sirt ले ज है है।।।।।।।।।।।।।।।।। a।।।।।।।।।। a।।।।।।।।।।।। ucto इच म म eda मella. इसके लिये प्राaga नहीं करनी पड़ती है, पुकारना नहीं पड़ता। इसके लिये प्रकृति ने हमें काफी उपकरण दिया है। वह अपने आप हमें ले जाती है। नीचे की तरफ उतरना हो तो किसी पुकार, किसी प्रagaacho की कोई भी आवश demás नहीं है।।।।।।।।।। अंधेरे की तरफ आपको आपकी प्रकृति ले ही जाती है, ले ही जा रही है। आपके अपने ही कर्म लिये जा रहे है, आपकी आदतें और संस्कार लिये जा रहे हैं।।।।।
ऐसा भी नहीं है कि कोई देवत mí इस भ्रांति में मत रहना। सन्मार्ग की तरफ जाना तो आपको ही है। लेकिन यह प्रार्थना आपको जाने में असमर्थ बनायॗ यह प्रagaaga आपके भीतर के द्वाisiones उर्ध्वगमन की ओर, ऊपर की ओर। तब आप पूरे स siguez होने लगे, रात के स्वप्न भी उससे प्रभावित होने लगे, वह आपकी बन बन जाये, तब आप स्वयं अनुभव कर सकेंगे सद्गुरू को, अपने निकट अनुभव कर पायेंगे, बिल्कुल आत्मरuela औ की की uto।।।।।।। भ भ भ भ भ भ भ भ भ भ भ भ भ भ भ. लेकिन उसके पहले आपको पहल करनी पड़ेगी। साधना करनी पड़ेगी। अपनी साधना से ही आप बदल सकते है है, आपका रूपांतरण हो सकता है। साधना तो स्वयं में ही फल है। इसलिये साधना करके चुपचाप भूल जानां आप साधना कर सके, यही बहुत बड़ी बात है।।।।।।। आप साधना प्रaga podrtar वर्षो बीत जाते है, केवल यह सोचने में कि कल से स mí. हो सकती है, बस थोड़ा सा स्वयं को व्यवस्थित करना ।
जो ऐसा करने में सफल होते है, उन्हें साधना की महत्ता ज्ञात होती है, वो ये जानते है, कि गुरू क्या होता? कितनी अनुकम्पा उनकी है। वह साधक परिचित हो जाdos सद्गुenas जी के आशीर्वाद स्वरूप अमृत तो बरस रहे है, लेकिन लोग अपना घड़ा उल्टा रखकर बैठें है।।।।।।।।।।।।।। ऐसा नहीं है कि जिस दिन घड़ mí
परमात haber वे सतत् बरस रहें, हमारी ही मटकी उल्टी है। अहंकारी मटकी को उल्टा रखकर बैठता है और भरने की कोशिश करता है। मटकी को सीधी रखने का मतलब है, मैं ना कुछ हूं, इसकी घोषणा करना। जब मटकी सीधी होती है तो भीतर का खालीपन ही तो प्रगट होता है। उल्टी मटकी अपने भरे होने का भ्रम पैदा कर देती है, सीधी होकर मटकी को पत mí । तब उस मटकी में कुछ भरा जा सकता है।
फिर कृपा उसमें भर जाती है, क्योंकि मटकी सीधी ग९ ग९ ग९ यद्पि आप मटकी सीधी ना करें तो उसकी कृपा का अनुभव कैसे कर पायेंगे। आपकी ही कृपा है कि आपने मटकी सीधी रखी और अपने आप पर कृपा करना ही साdos इस संसार से जो हम फैला लेते है उससे वियोग उससे अलग हो जाना। एक संसार है, जो परमात haber हम sigue, फैलाव गिर जाना चाहिये, तो हम परमात्मा के संसार से संबंधित हो है।।।।।।।।।।।।।।। जब तक मेरा अपना फैलाव है, तब तक संयोग कैसे होगा उससे, जो परमात्मा का है। यह कभी ख्याल में भी न आय mí वियोग अंसतोष है। जैसे किसी मां से उसका छोटा सा बेटा बिछुड गया हो और असंतुष्ट हो, ठीक ही हम हम अस्तित्व से जाते है और असंतुष्ट हते है है है है है है है है है है है है है है है है है उस असंतोष में हम बहुत उप siguez
एक ही संतोष है, वह मिलन, संयोग उससे, जिससे हम छुट गये है वापस उस मूल स demás. इसलिये अतिरिक्त संतुष्ट आदमी होता ही नहीं। बाकी सब आदमी असंतुष्ट होंगे ही। वे कुछ भी करे, असंतोष उनका पीछा न छोड़ेगा। वे कुछ भी पा लें य mí वे धनी हो कि निर्धन, वे दीन हो, द्र compañía हो कि सम demás असंतोष उनका पीछा करेगा। असंतोष छाया की तरह पीछे लगा ही रहेगा। कहीं भी जाये आप। सिर्फ एक जगह अंसतोष नहीं जाता। वह परमात्मा से जो मिलन है, वहाँ भर अंसतोष नहींजा जा उसके कई कारण है। पहला कारण तो यह है कि हमने कभी पूछा ही नहीं अपने से कि हम असंतुष्ट क्यों है। र sigueal
एक महल दिखाई पड़ जाता है, तो सोचते है, यह महल मिल जाये तो मिल मिल जायेगा। एक सम्रagaट दिखाई पड़ जाता है, तो सोचते है, यह सिंहासन अपना हो संतोष संतोष मिल जायेगा और कभी से से पूछ mí ¿Está bien? ¿Está bien? ¿Está bien? तो फिर थोड़ा मन में सोचे। समझ ले कि मिल गई कार, मिल गया महल, मिल गया सम्रताा ४ ¿? और तत्काल लगेगा कि कोई संतोष आ नहीं सकता। लेकिन हो सकत mí तो वह जो कार में बैठा है, उसकी शक्ल को देखे, वह जो महल में विराजमान है, उसके आसपास परिभ quitaros उसे भी ऐसा ही लगा था एक दिन। उसे भी लगा था कि इस पद पर होकर XNUMX फिर पद पर आये तो बहुत दिन हो गये, संतोष तो जरा भह न हाँ, अब उसे लग ¢ ह कि किसी और बड़े पद पर हो, तो संतोष हो जाये। ऐसे जीवन क्षीण होता, रिक्त होता, मिटता, टूटता। रेत में खो जाती है जैसे कोई सरिता, ऐसे ही हम खो जाते है और बिखर जाते है।।।।।
हमने कभी ठीक से पूछा ही नहीं कि हम असंतुष्ट कऍह९ो हमारे असंतोष का कुल कारण इतना है, जड़ो से हमारा संबंध टूट गया है। हम सिर्फ विचार करते रहते है, विचार में ही जी ¢ है है और विचार का कोई भी मूल्य नहीं, अस्तित्व क Dav है।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।। क्योंकि जैसे ही मिलन होता है परम seaत haber परम seaत haber वह असंभावना है। साधक अपवित्र नहीं हो सकता, वह पावन है। प्रभु से जुड़ गई हो जरा सी भी धार marca तो फिर अपवित्रता का कोई उपाय नहीं।।।।।।।।।।।।।
परम् पूज्य सद्गुरूदेव
Sr. Kailash Shrimali
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