जीवन में उन्होंने कोई गुफा, कंदरा में जाकर, छिप कर बैठ कर साधना ध्यान चिन्तन नहीं किया, अपितु आivamente आ sigue. अपने गुरू की आज्ञा से पूरे भारतवर्ष में ज्ञान का प्रकाश फैलाया। हिंदू धर्म के सभी वर्गों के लोगों को एक करने के लिए उन्होंने भारत के चार कोनों में चार शक्तिपीठ दक्षिण में रामेश्वरम्, पूर्व में जगन्नाथ पुरी, पश्चिम में द्वारका, उत्तर में केदारनाथ शक्तिपीठ स्थापित किये और स्वयं अपने गुरू की स्मृति में पंचम शक्तिपीठ कांचीकामकोटि स्थापित किया। जीवन में केवल एक ही धुन थी कि मैं किस प्रकार वेदों के के ज्ञान को हिन्दू संस्कृति में पुनः स्थापित करूं। ब्रagaह्मण तथा पुरोहितों ने जो कर्मकाण्ड का जंजाल फैल sigue. सद्गुरूदेव ने भी अपने एक प्रवचन में कहा कि ''जब किसी राष्ट्र में धर्म के प्रति आस्था समाप्त हो जाती है तो वह राष्ट्र एक नहीं रह पाता, उसमें सद्भाव समाप्त हो जाता है और जब आपसी सद्भाव समाप्त हो जाता है तो राष्ट्र की उन्नति रूक जाती है और यही उस समय हो रहा था। तब शंकराचार्य ने पूरे भारत वर्ष को एक सूत्र में पिरोया तथा धर्म की पुनः स्थापना की। ''
इस प्रसंग का तात demás है कि सन्यास कभी भी शांत हो कर, छुप कर बैठ नहीं सकता। वह एक स्थान पर अधिक समय तक रूकता नहीं है। उसके जीवन का उद्देश्य जन चेतना जाग्रत करना होता तै सच्चा सन्यास, सन्यास और सांसारिक जीवन को अलग-अलग भागों में देखत देखता।
पुराणों में एक सुन्दर प्रसंग आया है कि भगवद् पूज्यपाद वेदव्यास के पुत्र शुकदेवजी अपने अपने पिता से सन्यास लेने की की की आज म icio श वेदव वेदव वेदव uto सकत वेदव वेदव वेदव वेदव Nustr. शुकदेव मुनि ने तर्क दिया कि सन्यास और गृहस्थ बिल्कुल अलग-अलग पक्ष हैं और गृहस्थ व्यक्ति ही चिंत चिंत में खोय • है क सकें सकें यह नहीं कि कि गृहस जीवन में में में सन।।।।।।। सन Nrero. जीवन सन सन सनella. इस पर वेदव्यास ने कहा कि राजा जनक महान् मनीष। है उनके पास ज sigue. तब तुम सन्यास लेने के लिये स्वतंत्र हो।
शुकदेव जी ¢ ज के यह यहां पहुंचे और अपना परिचय दिया तो राजा जनक ने उन्हें दरबार में बुला लिया। वहां देखा तो बड़ mí राजसी वस्त्र पहने संगीत, नृत्य का आनंद ले रहें । ¿Está bien? आखिर उनसे ¢ नहीं गया और उन्होंने राजा जनक से पूछ ही लिया 'आप कैसे मनीषी हैं हैं हैं आप औ औ देते हैं औnas आपके जीवन में यह व व कुछ स स।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।। eléctrica
यह सब कुछ अजीब लग रहा है। आप को विदेह ¢ कहा जाता है विदेह राज का अर्थ है अपनी देह देह से परे हो।।।।।।।।। संसार में लिप्त न हो। शुकदेव मुनि ने कहा कि आपको सारे ऋषि-मुनि किस लिये प्रणाम करते हैं और ज्ञानियो में आपको सर्वश्ometard. मैं यह बात समझ नहीं पा रहok हूँ संभवतः सारे साधु, सन्यास आपके दरबok में हैं हैं आपका गुणगान करते होंगे अन्यथा मुझे यह यहां सन्यास जैसा कुछ भी दिख नहीं नहीं íbor राजा जनक ने कह mí उसके बाद सन्यास इत्यादि की चर्चा करेंगे।
दूसरे दिन ¢ ज ने पूछा कि भोजन और विश्रaga में कोई कमी तो नहीं थी।।।।।।।।।।।।। नहीं नहीं मुझे विश्वास है कि आपने भोजन औecer इस पर शुकदेव मुनि अत्यंत क्रोधित हो उठे और बोले कि भोजन तो बहुत अच्छा था लेकिन आपने सिर के ऊपecer कैसे लग सकता था तथा विश्रagaम के समय भी सिर के ऊपर तलवार लटका रखी थी।।।।।।। इस कारण एक क्षण भी नींद नहीं ले पाया पूरा ध्यान तलवार की ओर केन्द्रित था। राजा जनक मुस्कenas दिये और बोलें कि कल जो आपने प्रश्न पूछा था उसका यही उत्तर है।।।।। मैं जीवन में सारे आमोद-प्रमोद करता हूँ लेकिन सदैव इस बात का ध्यान ivamente हूँ कि मेरे ऊपर यमराज की तलवार लटकी है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है eléctrico eléctrico इसलिये मैं पूर्ण निष्ठा के साथ राज-काज चलाता हूंूंूंू राज्य में की धर्म स्थापना में सहयोग देता हूँ, ना मालूम किस घड़ी यमर gaste अतः मैं किसी भी प्रकार की तृष्णा में लिप्त नहीं होता हूँ, संसार के सारे राग-ंग देखते भी मन को इन सबसे अलग अलग हने देत हूं हूं हूं मन को वासना, तृष्णा, भोग इत्यादि में लिप्त नहीं होने देता हूं।।
यह सुन कर शुकदेव मुनि को ज्ञान आया और उन्होंने कहा कि आप मुझे सन्यास धर्म का ज्ञान दीजिये।।।।। तब राजा जनक ने कहा सन्यास जीवन का ही एक भाग है, गृहस्थ जीवन में रहकर व्यक्ति सन्यस्त हो सकता है क्योंकि जीवन क लकguna लक ही आत आत uto को प °ellas क क है है।। कguna Balticzo जनक बृहदारण terc-
मैत्रेयी ने पूछा कि जीवन में अमर होने क mí जीवन में उसी से पूág.
वह आत्मा ही तो द्रष्टद्रव्य है, श्रोतव्य है, मंतव्य है, निदिव्यासितव्य है को देख देख, उसी को सुन, उसी को को जान, उसी क धguna य क क।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।। मैत्रेयी! आत्मा के ही देखने से, समझने से और जानने से सब गांठे खुल जाती है। वास्तव में मनुष्य जीवन में प्रतिदिन हजारों बंधन ज mí मोह और तृष्णा ईश्वर की दी हुई एक ऐसी क्रिया है जिससे मनुष्य इस संसार को चलाता रहता है।।।।।।। लेकिन मनुष्य इसमें इतना अधिक लिप्त हो गया है कि वह केवल शत्रुता, तृष्णा, वासना के बारे में सोचत सोचत है और अपना जीवन एक कूप कूप-मण्डूक की तरह व्यतीत क quedó देत है।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।.
जब इन बातों से मनुष्य ऊपर उठता है तब कर्मशील बाै जब तक कर्म कर्तव्य से जुड़ा रहता है। तब तक वह कर्म सात्विक होता है और जीवन सन्यास ताथह लेकिन जब अस sigue. जीवन का उद्देश्य ही स्वतंत्रता प्राप्त करना हैहो अपनी इच्छा से जीवन का प्रत्येक क्षण जी सके इसी को सन्यास कहा गया है।।।।। सन्यास भी एक प्रकार से कर्म का ही स्वरूप है।
व्यक्ति के पिछले जन्मों के कर्म व्यक्ति की आत्मा के वासना संसार में जुडे रहते हैं और इस जन्म में भी समय-समय पर व्ति Davavor अब इसमें इस जन्म के कर्म जोड़ भी सकते हैं और इस जन्म के जो कर्म हैं उन्हें जुड़ने से रोक भी है।।।।।।।।
जो भी कर्म वासन sigue. चाहे वो प्रेम का बंधन हो, घृणा का बंधन हो, शत्रुता का बंधन हो अथवा मित्रता का बंधन हो हो हो होguna के् बंधनguna के½ एक बार जो बोल दिया जो कर दिया वह कर्म बन जाता है। इस प्रकार करorar आगे की क्रियायें जो करते हैं वह इसी कर्म की वासना के से से करते हैं।।।।। आज से से पंद Sपंद uto व sig पहले पहले किसी से से शत utoega हो गई गई अथवtan घृणtan हो हो गई उसे उसे निभाते ही चले ज जtan हैं हैं हैं हैं तब जीवन जीवन में स स uto सlesia कैसे आ सकती है।।।।।।।।।।।।.
स्वामी वेदानंद जी जो कि सिद्धाश्रम संस्पर्शित योगीराज हैं उन्हीं के शब्दों में मैंने बराबर इस सन्यास को पानी में खड़े हुए देखा है, कल इसकी साधना का अन्तिम दिन था, इसने अपनी साधना जिस संकल्प-शक्ति के बल पर संपन्न की है, वह विरले लोगों को ही नसीब होता है। कनखल के गंगा तट पर हजारों लोगों की भीड़ में सैकड़ों संनutar. उतरे हैं और आस-पास के स्तम्भों से बंधे रस्सी को हटाकर इस तेजस्वी सन्यास को पानी से बाहर लाने के उपक्रम कर रहे हैं, चौबीस दिन एक स्थान पर खडे़ होने से पावों का खून जम-सा गया है, सन्यास चलते हुए लड़खड़ा रहे थे , उन्हें सहारा देकर बाहर लाया गया, उफ! उनके पांव छलनी हो गये हैं, नसें फूल गई हैं ३ पावों को जगह-जगह से ने ने काट खाया है, कुछ स्थानों पर एक-एक इंच गहatar भी प्रकार की पीड़ा या विषाद के चिन्ह नहीं हैं वास्तव में ही यह सन्यास लौह पुरूष है, सारा आकाश उस सन्यास की जय-जयकार से गुंजरित हो रहा है, कुछ युवा सन्यास ने गर्म तेल से उसके पैरों की मालिश प्रारम्भ कर दी है, शायद ये युवा सन्यास दृढ़ व्यक्तित्व के शिष्य हैं, जिस अप्रतिम संकल्प-शक्ति के सहारे इस योगी ने यह साधना सिद्ध की है, वह अद्वितीय है! मेरा मन और शरीर स्वतः ही उनको चरणों में झुक गया है और वही सन्यास सिद्धाश्रम के प्राणाधार, संचालक, योगेश्वर परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानंद जी हमारे पूज्य सद्गुरूदेव जी जिनको पूरा भारतवर्ष डाण् नारायण दत्त श्रीमाली के नाम से पुकारता है गीता के बुद्धि योग में भी यही कहा गया है कि कágamientos कर्म को केवल कर्म के रूप में किया जाये, क्योंकि इसमें नहीं है कि कि कर्म करे और उसका फल प्रagaप demás नहीं।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।। लेकिन जब हम फल के बारे में ही विचा rod कár. उसका सही रूप से फल भी नहीं मिल पाता। सन्यास धर्म का विशेष विवेचन भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में स्पष्ट रूप में किया है।।।।।। उन्होंने कर्म को सन्यास से जोड़ा और कहा कि कर्म, अकर्म, विकर्म इन तीनों स्थितियों में से कर्म को छांटना पड़ता है।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।। भगवान ने कह mí उन सब में से कर्मांश को निकालकर उपयोग में लाना था थाथा -
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि कenas जो जो अकर्म देखे तथा अकर्म में जो कर्म देखे वह बुद्धिमान है।।।।। अकर्म ब्रह्म का नाम है तथा कर्म माया का नाम है। ज्ञान के आधार पर माया कर्म चलती है। यह दृष्टि ही कर्म बंधन से छुड़ाने वाली होती है। यह श्लोक ही कर्मण्येवाधिकरास्ते का स्पष्टीकरण है जो कि ईशावास्य के मंत्र के आधार पर भगवान ने यहां स्पष्ट किया है। मंत्र है-
इस श्लोक क mí एक स्थिति में वह करorar एक घर परिवार, समाज में जकड़ा हुआ है तो दूसर gas. जब कि जीवन का वास्तविक उद्देश्य दोनो ही स्थितियो में स्वतंत्रता पow. जब तक मानसिक स्वतंत्रता प्रagaप्त नहीं हो जाती तब तक व्यक्ति का जीवन पशु तरह ही बीतता है चाहे वह कैसे भी वस वस्त् razón पहन लें, कैसा भी ख ख-प प कivamente ले ले ले ले ले ले ले ले ले ले ले ले ले ले ले ले ले ले ले ले ले ले ले ले ले ले ले ले. अंतस बुद Sबुद से ही ही और आंतरिक स्वतंतellaando से ही ही एक विशेष विशेष दृष ender प Sप Sप प Sप प प होती है जिसे जिसे अंत Fuestos ज ज razón जरण क Conservacho कह marca है है।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।। है है है है है है है है है हैellas। है है.।। है है है है. यह चक्षु जाग्रत हो जाते हैं तो व्यक्ति स्वतंत्र हो जाता है।।।।।
जब जीवन प्राप्त हुआ है तो जीवन में कई प्रकok के संयोग वियोग बनते हैं।।।।।।।।। हैं हैं हैं हर संयोग किसी कार्य का निमित्त बनता है। लेकिन ऐसा कौन सा कार्य है जो व्यक्ति स्वतंत्र रूप से कर सकता है? जब व्यक्ति सम भ siguez अपने भीतर आत्म अवलोकन करने का हमाocar द sigya जीवन चक्र से मुक्त होने के लिए जीवन से भागना नहीहीही कenas भ भाव से ही जीवन में मुक्ति प्रagaप्त हो सकती है और वहीं पूर्ण सन्यास का भाव है।।।।।।।।।।
इसीलिये हजारों वर्ष पूर्व महर्षि पर gaso ने सन्यास, सन्यास और जीवन के दस बत बताये। ये व्यवहार में ल siguez वह छोटे गांव में रहे अथवा बड़े शहर में वह नौकरी पेशा हो अथवा व्यवसायी, वह स्त्री अथवा पुरूष इसमें कोई अंतर नहीं पड़ता।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।. इसीलिये महर्षि पार marca कहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति सन्यास बन सकता है उसे जीवन से भागने की आवश्यकता नहीं।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।। उनके द्वारा दिये गये -
तीन प्रकार के सत्य कहे गये हैं, वे हैं तात्विक, व्यवहाisiones अर्थात् सत्य सदैव सत्य ही ivamente हत, वह भी भी कguna में किसी भी रूप में परिवर्तित नहीं सकत सकता।
गीता में जो भगव siguez जिसने अपने जीवन में निश्चित सत्य को अपन mí
ज्ञान कर्म और धन का प्रवाह पाराशर ऋषि ने सिद्धांत दिया कि सत्यनिष्ठ मनुष्य के शरीर में ज्ञान, कर्म और धन का प्रवाह रहना चाहिये और वह प्रवाह सत्यनिष्ट व्यक्ति के जीवन में स्पष्ट रूप से दिखाई देना चाहिए। धन का प्रवाह रूकने से समाज का निधन होता है। उसी प्रकार ज्ञान के हाथ में, कर्म के हाथ में ज्ञान नहीं से से समाज पंगु जाता है।।।।
अर्थात प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में ज्ञान, कर्म और धन की स्थिति निरंतर बनी η endr
ज्ञान कर्म और धन की दिशा ज्ञान, कर्म और समाज मनुष्य के जीवन एक ही दिश दिश • में प् razón होने होने होने च नहीं धन कुछ कुछ कुछ यक यक यक यक यक यक यक यक यक यक ति ति ति ति ति ति ति ति ति ति ति ति ति ति ति ति ति ति ति ति ति ति ति ति ति ति ति ति ति ति ति ति ति हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो — इसलिए ज्ञानी व्यक ender को समाज में ही balte. ज्ञान भी धन है औecer
मनुष्य जो भी कर्म करे उसका फल उसे अपने जीवन में अवश्य ही प्रagaप demás चाहिए। निरउद्देश्य भाव में साधना, कर्म इत्यादि क्रियाएं सम्पन्न करने से पूर्णत की की प्रijaप नहीं हो सकती है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है eléctrico हर स्थिति में व्यक्ति को लक्ष्य अपने सामने अवशutar वही सच्चा तत्वदर्शी, कर्म सन्यास बन सकता है।
कenas सन्यास के जीवन में नम्रता और शौर्य दोनों ही भाव अवश्य होने चाहिये। संसार में सब को अच्छा कहने से संसार नहीं चल सकता है, इसी तरह संसार में जैसे चल ह रहok है, वैसा ही चलने देने की भावना भी क करículos सन्यास के मन में च च च च चijaहिये। च चija. असत्य का नम्रता से प्रतिकार और सत्य का दृढ़ता से पालन कर ही अन्याय और अत्याचारों से हित हित सम अनुश की की की razón
हर व्यक्ति अपने घर में अपने स्थान पर नेतृत्व करने की क्षमता रखतok है, आवश्यकता इस बात की है कि अपने भीतर उस क्षमत Davaños नेतृत्व सदैव प्रभावशाली और सत्य से युक्त होना चाहिये जिससे समाज को नई दिशा सदैव प्रagaप होती हे, सड़े-गले गले सम में प ल ल के के लिए लिए प सम सम सम सम सम सम सम सम सम सम सम सम सम सम सम सकत सकत सकत सकत सकत सकत सकत सकत सकत सकत सकत सकत सकत सकत सकत सकत सकत सकत सकत सकत—
जिस समाज में स्त् Prod. ऐसे समाज में व्यक्ति समाज की आधी शक्ति को व्यisiones स्त्री शक्ति जो की सृष्टि को चलाने के लिए आवशutar इसलिये हर स्थिति में स्त्री शक्ति को जागृत acer
सन्यास का कर्तव्य है कि वह समाज को स्वस्थ, सुखी और समृद्ध बनाने के लिए श्री, सरस्वती और शक्ति की सम्मिलित उपासना करे क।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।। क razón जब इन शक्तियों का दुरूपयोग होता है तो समाज में अव्यवस्था बढ़ती है। इन तीनों के समन्वय से ही सुदृढ़ समाज की रचना सै सै सै
प sigue, ऋषि ने अपने सिद्धांतो में कहीं भी वर्ण व्यवस्था का उल्लेख नहीं किया है।।।।।। ब्राह्मण वही जो ज्ञानी हो। क्षत्रिय वही जो कर्मशील हो और वैश्य वही जो उत्पादक हो ये तीनों ब्रह्मतेज, कgon. इन तीनों के समन्वय से ज्ञान, कर्म और उत्पादन का समन्वय होता है और इसी से ही श्ágamientos प्ع. इसके विपरित कोई भी अन्य क्रिया सन्यास के लिए उचित नहीं।। आत्मा को सुख अवश्य प्रagaप्त होना चाहिए, लेकिन उसके लिए समाज में श्रेष्ठ आनन्दयुक्त वातावरण की रचनok करना भी सन्यास का ही करbar Qavor है है।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।.
दशम सर्वाधिक महत्वपूisiones जिस समाज में किसी प्रकार का ध्यान नहीं होता हो, किसी प्रकok की निश्चित धारण tomar नहीं और साधना, तपस्या जैसे कर्म नहीं हो वह सम सम सुखी नहीं नहीं बन सकतtimo है।। नहीं हो वह सम सम सुखी नहीं नहीं बन बन सकत है।। नहीं हो वह वह सम नहीं नहींija
सन्यास ही समाज में ivamente व्यक्ति रूप में रहकर समाज में उपरोक्त दसों सिद्धांतो का निर्वहन कर सकता है। सन्यास ही साधक होत mí
सबसे विशेष तथ्य यह है कि सन्यास का सम्बन्ध भगवती श्री विद्या से है और श्री विद्या के ही नाम ललिता, राजरbarजेशacho, महात्रिपुár. ऋग्वेद के वृहचोपनिषद में इस पर सुलेख है कि एक मात्र देवी ही सृष्टि से पूर्व की थी और राजर marca • से ही सभी देवत देवता प्रagaदु हुए।।।।। हुए।। हुए हुए हुए हुए हुए हुए हुए हुए हुए हुए हुए हुए हुए हुए हुए हुए हुए श्री विद्या की उपासना से आत्मज्ञान ही नहीं, भोग और मोक्ष भी हैं-
श्री विद्या चारों पुरूषारutar-
श्री राजर gaso अर्थात पाश इच्छा का प्रतीक, अंकुश ज्ञान का प्रतीक, बाण धनुष क्रिया शक्ति का प्रतीक है।।।।।।।।।। श्री राजर gaso इसी को परम विद्या महाविद्या कहा गया है- '' या देवी सर्वभूतेषु विद्या रूपेण संस्थिता '' यही सर्व देवमयी विद्या है।।।।।।।।।।।।।।। इसी को ''विद्यायासि सा भगवती परमा हि देवी'' कहते है विश्व में समस्त विद्याएं इन्हीं के भेद हैं। ''विद्या समस्तास्तव देविभेदाः।'' मंत्रों में श्री विद्या को श्रेष्ठ माना गया है- ''श्री विद्यैव हि मंत्रणाम्।'' राजराजेश्वरी श्री विद्या वाग्देहरूप ओंकार का दोहन करती है- जो शांत और शान्ततीता है। मंत्र व मंत्रधीना होकर सर्व यंत्रेश्वरी व सर्व तन्त्रेशरी है, यहीं राजर marca • शgonenda विद्या है।।।।।।।।।।।।
जब कार्तिक मास होता है और चन्द्रमा गगन मण्डल में अपनी पूरी आभा के साथ प्रकाशित होता है, वह दिवस दो कoque से मह मह दिवस।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।। प्रथम तो यह राजर gaso श salvaje श् porta दूसरे इस दिवस को भगवत् पूज्यपाद गुरूदेव ने सन्यास जीवन को प्रaga podinar
साधक हो अथवा शिष्य सन्यास दिवस के दिन उसे ाजेश्वरी साधना अवश्य ही सम्पन्न करनी चाहिए और यह ध्यान रखना चाहिए की जीवन में कर्म, ज्ञान, क्रि या, भोग के साथ उपासना, साधना, विद्या, ज्ञान भी आव श्यक है और जब इनका समन्वय होता है तब व्यक्ति जीवन में सच्चा सन्यास बनता है। यहीसद्गुरूदेव द्वारा स्थापित कैलाश ्रम साधक परिवार का लक्ष्य है, राजराजेश्वरी सन्य ास दीक्षा प्राप्त करना तो जीवन का सौभाग्य है जि समें भगवती - विद्या त्रिपुरा सुन्दरी राजर ाजेश्वरी की पूर्ण कृपा एवं वरदान प्राप्त होता ह ै और जीवन बंधनों से अर्थात समस्याओं से मुक्त क् रिया प्रारम्भ कर देता हैं।
परम् पूज्य सद्गुरूदेव
Sr. Kailash Shrimali
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