गुरू द्वार marca व्यक uto की पू sig uto भ mí marca को उसके उसके पूivamente पू sig umarodoग ternacho को को को— और पूuestos पूuestos वer व व तो तो प पúmeda व व uto व uto के स स स चलते ही हते हैं हैं। यह पूर्व जन्म के संस्काisiones केवल जिह्वा से ही गुरू-गुरू की रट लगाने से ही जीवन में 'गुरू' उपलब्ध नहीं ज जाते, केवल उनके चरण सutar क्योंकि समाहित तो वे तब हो सकेंगे जब हृदय किसी पूर्वाग्रह से ivamente जब तक वहां किसी और की मूर्ती बिठा रखी होगी, उसे छोड़ना ही न चाह रहे होंगे, तो वे समाहित होंगे कह कहां?
यह सत्य है, कि प्रत्येक जीव को उसकी भावनाओं के अनुरूप प्रagaendo. जिनके विविध अंग-उपांग में अनेक देवी-देवता (तथाकथित) या उन देवी-देवताओं का लीला विवरण यूं तैर रहा होता है, जिस प्रकाendrza होते, न उन मेघों से आकाश का कोई परिचय होता है। आकाश की अपनी शुभ्र नीलिमा होती है वही उसकी वास्तविक अभिव्यक्ति, उसका पecerg यह अनायास नहीं है, कि इसी कारणवश गुरू की अभ्यर्थना 'अखण्ड मण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरं, तत्पदं दर्शित येन तस्मै श्री गुरवे नमः' के रूप में की गई है।
सम्भव है, कि किसी भक्त प्रवृत्ति के व्यक्ति को ये बातें ¢ न लगे लगे अहं्योंकि व्यक्ति की भी उसकी ध धaños भक्ति तो एक भय है, भक्ति तो एक स्वार्थ पोषण का य्थह यूं यथार्थ में होते ही कितने भक्त हैं, जो भक्ति मार्ग को श्रेयस्कर घोषित किया जा सके? मैंने तो सूक्ष्म अवलोकन में यही देखा है, कि जो व्यक्ति सutar और उनकी मान्यता पर जरा सी चोट पहुँची नहीं, कि वे तड़प उठते हैं, उनके दम्भ का विष छलक कर बाहर आ जाता है।।।।।।।।।।। जो इस देश के इतिहास से परिचित होंगे, वे जानते होंगे, कि कैसे इसी देश में, इसी सहिष्णु कहे जाने वाले देश में वैष्णवों व के के मध मध्य केवल तguna क क razón
व्यक्ति का पूरा जीवन ही यूं छद्मों के पोषण, आवरण और मिथ्या प्रलाप में बीत जाता है, क्योंकि उसने विश्लेषण की उस प्रक्रिया से संयुक्त होना नहीं सीखा होता है, जो उसे गुरू के साहचर्य में आने के बाद अवश्यमेव अपनानी चाहिये और ऐसा वह इसलिये नहीं करता है, क्योंकि विश्लेषण की प्रक demás िय से संयुक्त होना त्रसदायक है।।।।। यह इतनी अधिक त्रसदायक क्रिया है, कि कबीर ने इसे घुन द्वendroso क काठ को खाये जाने संजthञ ञ दी है, इस इस प्रकرaga ज ओ उसे उसे उसे उसे ही ही razón. में कुछ नवीन प्रagaप demás करने निकल पड़ा है, तो वहीं दूसरी ओर प्रतिपल उसे उस अज्ञात की दूरी कचोटती, जिसका वह गुरू से सम्पriba में आने के ब प क बढ़ बढ़ क Nija आगे क कella आगे क कella.
इसके उपर marca भी कुछ स सguna को अपने पूर्व जन्म के संस्कारों, प्रवाहों चैतन्यता और जीवन कुछ नूतन घटित कatar यूं तो अनेक भक्तों ने भी अपन mí उन्होंने ईश्वर को केवल अपना माना है और अपने को केवल ईश्वर का माना है, जबकि साधक का लक्ष्य आत्म कल्याण से उठते ही, उसे सम्पूर्ण करते ही तत्क्षण लोक कल्याण की ओर उन्मुख हो जाना है या यूं कहें कि वह आत्म कल्याण या अपनी मुक्ति का हेतु बन सके, गुरूत्व से युक्त हो सके। जहां तक ईश्वर और भक्त के बीच की बात है, वहां तो कुछ नहीं कहा जा सकता, किन्तु जबाधक गुरू का आश्रय ग्रहण करने के ब ब Nellas गुरू का तो आगमन ही होता है अनेक के लिये और यही उसके शिष्य का भी लक्ष्य होना चाहिये। अपनी बद्ध धारणाओं से मुक्त होकर गुरू साहचर्य को इस प्रकार गgon.
चेतना का प्रवाह गंगा की भांति कभी रूकतok नहीं है और अन्त में स्वयं को एक ऐसी विशालता में लुप्त पाता है, जिसमें किसी देवी-देवत क क अथव favor यही व sigue. ऐसे गुरू रूपी समुद्र में प्रतिक्षण अनेक दिशाओं से आती ज्ञान की धाisiones गुरू से अन्त में 'मिलन' नहीं होता है, गुरू तो प्रथम दिवस से ही साथ चल हे होते।।।।।।। अन्त तो सम्पूenas णत होता है, अनेकता के सम्मिलन स्थल में होता है। आवश्यक केवल यह रह जाता है, कि शिष्य प्रतिक्षण गतिशील बना रहे। जब उसे म sigueará न मिल ह ह हो तब भी वह अटकी नदी की तरह छटपटाता रहतok है और मार्ग के पत्थisiones विश्लेषण की क्रिया या इन्हीं सब क्रियाओं का संयुक्त नाम ही तो है।।।।।।।।।।।।।
ऐसा होने पर ही गुरू साहचर्य की सफलता होती है और षषष ्यर्थ के प्रलापों, धारणाओं से मुक्त होकर गुरं स८ ्र में झुककर अपने प्रतिबिम्ब को निहार, उसका नूतन जन्म तो एक हंस के रूप में कबका
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