यह सत्य है, कि भारत की समृद्ध ज्ञान-परम्परículo के पीछे विद्वतजनों की अहंमन्यतenda भी ठोस क कί Selar. किन्तु इन्हीं सब प्रपंचो के मध्य कहीं न कहीं वे साधुजन भी छिपे हैं, जिन्होंने अपने निशutar ऐसा करने के पीछे कदाचित उनका भाव रहok हो, कि द दर्शन की प्रस्तुति करनी है अथवा न भी रहok हो।।।।।।।।।।।।।।।।।। मूलतः विचार ही तो बाद में दर्शन का रूप धारण कर ले ले
वस्तुतः जैसा कि भगवतप sigue.
चिन्ताशून्यमदैन्षमशनं पानं सरिद्वारिषु स्वातन्त्रयेण निरंकुशा स्थितिरभीर्निदeccionachoado। वने।।।।।।।।।।।
वस्त्रija क marcaija लनशोषण दिग्वास्तुशय्यामही संचारोनिगमान्तवीथिषु विदां क्रीडा परे ब्रह्मणि ।।
अर्थात् '' चिंता एवं दीनत mí निरंकुश एवं स्वतंत् PO वन अथवा श्मशान में भी वे सुखपूर्वक निद्रा
धोने-सुखाने की क्रियाओं से रहित दिशा ही उनके वस्त्र होते हैं, उनका आवागमन वेदान्त विधियों में ही करता है और परबن supreroह में ही उनकी क क्रीड़ा है।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।
—ठीक यही स्थिति एक विद्वान पुरूष की होती है अथवा होनी चाहिये। ज्ञ Chrepto यूं भी जो मुक्त हो गया, जिसने संसार को एक बार एक अलग दृष्टि से निहार लिया, उसे स्पृहा रह भी जायेगी तो किस वस्तु की की की की की की की की की की की की. फिर भी मानव की मूल चेतन mí
सांसारिक प्राणी तो अपने उदर पोषण और उदर-पोषण की चिंता से मुक्त होने के बाद तृष्णाओं एवं कामनाओं की पूर्ति में संलग्न हो जाता है, किन्तु मुक्त पुरूष इनमें लीन हो भी तो कैसे हो? और तब फिर वह केवल ब्रह्म का निरूपण विविध रूपों से करने का आग्रही मात्र ¢ जाता है।।।।।।। तब वह उसी एक परमतत्व को भी शिव के रूप में, कभी ¢ के के रूप में और कभी-कभी तो शक्ति के रूप में वर्णित करता है।।।। है है है है है है है है है है है है है है है केवल यहीं तक ही नहीं वरन् तब तो जीवन के विविध भाव, जीवन का हास्य, जीवन का प्रेम, जीवन का लास्य, सब कुछ उसके लिये उसी प razón तguna त व त त त तija ज ज ज णितija ज ज णितija ज णित णितija
तब उनके लिये मीरा, कबीर या सूर किसी शोध के विषय नहीं रह जाते, अपितु वह फिर कभी स्वयं मीरaga बनकर मीरículo को समझना चाहता है, तो कबीर बनकर कबीर कोर कोículo यह उसकी एक मात्र विलास शेष रह जाता है और जैसा कि स्वामी विवेकानन्द ने कह mí व्यक्ति के चित्त पर हावी होती हुई उसे ऐसा व्यक्तित्व बना देती है, जो देश-काल के से परे एक स सecerte सर्वग्रuela
वह प utoega दिव दिवella–s mí.
-और जब ज्ञान विलास बन जाता है जब वह तर्क-वितर्क की सीमाओं को लांघने को तत्पर हो जाता है, तभी एक नये संगीत क क्म होता है।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।। eléctrico यहाँ पुनः स्वामी विवेकानन्द का ही कथन उद्धृत है, कि आज तक धर्म के क्षेत्र में भी भी व्यक्तित्व ने नये नये तत्व की नहीं नहीं की है है अपितु व व ender य भ की।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।। धर्म के मूल तत्व यथा करूणा, प्रेम इत्यादी तो वही रहे हैं और वही रहेंगे।
काल विशेष के अनुसार उनकी व्याख haba जब यह व्याख्या सद्गुरू के सानिध्य में होती है तब यह एक नीरस या उबाऊ यात्र नहीं, अपितु आनन्द की, उल्लास की, चेतना की ऊर्ध्वगामिता की यात्र बन जाती है, जिस प्रकार देवगंगा का प्रवाह अधोगामी न होकर ऊर्ध्वगामी होता है।
ऐसी स्थिति में ज्ञान, तर्क का पूरक यह बहुधा जऍतञा ग भी नहीं होता, यद्यपि स्थूल दृष्टि से देखा जाय्ञे ञे व तर्क एक ही सिक्के के दो पहलू लगते हैं, किन्तँ के मुख से प्रवाहित ज्ञान तो वह होतXNUMX संहार कर देता है और अंततः मौन में जाकर सम्पूरजा ाा है।
यूं यूं तो कोई कोई मूर भी भी मौन हो हो सकतtan है ठीक ठीक उन uto उन uto कendrलिदijo की की तरह जिन uto मौन हक idor संकेतों से से ज ender ञ posterior क प uto प्रदuestos किया थguna ।guna ।guna ।na ।guna ।na ।tan ।na। razuar ।na थ razaron ।na थ razaron थna थ razaron थna थ razaron थ últimaya थna थguna थna थ razaron थna थ razaron थna थ razaron थ últimaya थna थguna थna थguna थna थguna थna थ razuar थ últimaah थ razaron थendr.
लेकिन मेरा तात्पर्य उस ज्ञान से नहीं है। ज्ञान की पूर्णता से है, जो मौन में आता हैं उसमें तृप्ति होती है, उससे व्यक्ति के चेहरे पर आभा आती है, तब वह प्रेम को समझता है और जब वह प्रेम को समझ लेता है तब वह जगत का स्वरूप समझ जाता है तब जगत के प्रति उसका कोई राग-द्वेष या दुराग्रह नहीं रह जाााा वह संसार को यूं देखता है ज्यों कठपुतलियों का कोई खेल चल रहा हो और इस स्थिति को प्राप्त कर लेने के बाद ही यथार्थः करूणा का आगमन होता है, जो प्रत्येक धर्म और दर्शन में जीवन का मूल कही गई है। ज्ञान से दीप्त व्यक्ति ही अनेक व्यक्तियों को संतुष्टि व समाधान उपलब्ध करा सकता है ज्ञान की इसी रूप में वंदना श्रेष्ठ है, क्योंकि जब हम किसी सातत्य की कल्पना करते हैं, तो वह सातत्य ज्ञान के माध्यम से ही उपलब्ध हो सकता है। समाज में प्रत्येक व्यक्ति तो ज्ञानी नहीं हो सकता और ऐसा कहना किसी अहंमन्यता की बात नहीं अपितु एक कटु सत्य की ओर इंगित करहा हूँ उप उप क कtimo ज तguna है है है? उपाय कदाचित यही रह जाता है, कि यथासम्भव अधिक नहीं तो कुछ चुने हुये लोग ही ज्ञान की प्राप्ति के लिये प्रस्तुत हों अन्यथा जो शेष रह जायेगा वह केवल भक्ति होगी और भक्ति में अन्य चाहें जो भी गुण हों, किन्तु उसका सबसे बड़ा दुर्गुण यह है कि वह व्यक्ति की ऐकान्तिक स्थिति होती है। आत्म-कल्याण की ब siguez
ज्ञान की एक आवश्यकता इस कारण भी है कि गुरू का साहचantemente
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