Discurso poderoso
यज्जोग्रतो दूरमुदैति देवं तदु सुप्रस्य तथैवै। दूंरगमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु
Durach Kamanay Pratipranayakshaye. Asma Ashrishvannasha Kamena Janayatsva.
हेपरमेश्वर स्वरूप सद्गुरू! दिव्य शक्तिमय, मेरा मन, जो जागते हुये भी भटकत mí संकल्प से युक्त हो जाये।
मुझे बार-बार कामना करते हुये, इस ईश्वरीय हृदय में प्रतिपालन के लिये आशाओं को सुनकर सद्गुरू प्रagaप demás हो हो और संकल्प द्वारículo उस अनन सुख सुख सुख Nella दिय noya भीतendr. यजुर्वेद और अथर्ववेद के इन श्लोकों से आज का प्रवचन प्रagaendo.
प्रश्न यह है कि यदि शिष्य दोष करे, यदि शिष्य गलती करे या गुरू की आज्ञा का पूरी तरह से पालन नहीं करे तो गुरू का क्या दोष होत है है? शिष्य ¿¿¿¿¿¿¿ एक ही प् Est. यह द्वैत और अद्वैत की स्थिति वैदिक काल से है, वैदिक क mí
दवा सो पवदना यजोवासे वः सतं दाह वैडो सतं
क्या हम जो कुछ देखते है, वह बिल्कुल एक अलग है और जो कुछ हम लोग है वह बिल्कुल अलग हैर औ दोनों-अलग है तो यह अद अदguna है औ यदि अलग अलग-अलग नहीं तो ऐस डिफ डिफίecuta महसूस महसूस होत होत है ऐस ऐस ऐस महसूस महसूस महसूस महसूस महसूस महसूस महसूस होत होत होत होत ऐस ऐस ऐस ऐस ऐस ऐस ऐस ऐस ऐस ऐस ऐस ऐस ऐस ऐस ऐस ऐस ऐस ऐस ऐस ऐस ऐस ऐस ऐस ऐस ऐस ऐस ऐस ऐस ऐस ऐस ऐस ऐस ऐस ऐस ऐस ऐस ऐस ऐस ऐस ऐस ऐस ऐस ऐस ऐस ऐस ऐस ऐस ऐस ऐस ऐस ऐस ऐस ऐस ऐस ऐस ऐस ऐस ऐस ऐस ऐस ऐस. होता है और आगे की मीमांसा, आगे के उपनिषद्कारों ने जो इस प्रश्न को लेकर के बहुत जूझे और यह द्वैत के बाद अद्वैत का विचार, मन में द्वैत और अद्वैत की लड़ाई वैदिक काल से लगाकर आज तक भी चलती आई है। कुछ लोग कहते है कि इस संसार में द्वैत हैं, क्योंकि माया अलग है है है है ब ब अलग अलग है है है है तीसezas जो कुछ है, वह पूरा संसार और जिस संसार के हम भी एक प्रagaणी हैं हैं एक सदस्य, एक पदार्थ हैं, हम अपने आप में कोई नवीन वस वस्तु है।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।। है है है है है है है है नहीं eléctrica eléctrica जैसे पत्थर एक पद marca है है, जैसे रूई एक पदार्थ है, जैसे हव tomar पदार्थ उसको कहते हैं जो जगह घेरता हो, पदार्थ उसको कहते हैं जिसमें घनतutar -
'अहं ब्रह्मस्मि द्वितीयो नास्ति'
मैं ब्रह्म हूँ और साथ-साथ एक बात और कह ¢ ह, द्वितीय यहां दूसरा कोई है नहीं नहीं।।।।।।।।।।।।। जब मैं ब्रह्म हूँ तो फिर यह पत्नी क्या है और मैं बthervoso -विलास यह सब क्या है?
क्योंकि शास्त्र तो झूठ है नहीं, और शास्त्र में यह कहा है, 'अहं ब्रह्मास्मि', क्योंकि संसार में केवल मैं हूँ 'अहं' और अहं शब्द बना है पूरी संस्कृत की वर्णमाला का सारगर्भित स्वरूप, क्योंकि वर्णमाला का प्रथम अक्षर 'अ' से शुरू होता है और अंतिम अक्षर 'ह' है। अ आ इ ई से शुरू करते हैं ग घ और य र ल व श स ष ह। अ से लगाकर ह तक जितने वर्ण हैं उसके बीच में जितने नाम आते हैं, पशु-पक्षी, कीट-पतंग, आदमी, वे सब कुछ हूँ।।।।।।।।।।।।।।।।।।
इसीलिये उसने शास demás में कहा 'अहं', उसने मनुष्य के लिये, अहं नहीं कहा वह सब कुछ मैं ही हूँ और श्रीकृषر ने ने गीत गीत में यही ब कही जो जो में अहं अहं व व ख ख ख ख ख ख ख ख ख ख ख ख ख ख ख ख ख ख ख ख ख ख ख ख ख ख ख ख ख ख ख ख ख ख ख ख ख ख ख ख ख ख ख ख ख ख ख. हुई और गीता के दसवें अध्याय को हम पढे़ तो कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं कि मैं वृक्षों में पीपल का पेड़ हूँ ऐसा नहीं कि मैं कृष्ण हूँ, वे कह रहे हैं कि मैं नदियों में गंगा नदी हूँ, मैं पहाड़ों में हिमालय हूँ, मैं धातुओं में स्वर्ण हूँ, इसका मतलब कहने का यह है कि 'अहं ब्रह्मास्मि' मैं ब्रह्म हूँ और यह अलग बात है कि तुम मुझको पत्ता समझ सकते हो, पेड़ समझ सकते हो, मुझे नदियां समझ सकते हो, मुझे धातु समझ सकते हो, वह जो कुछ भी समझ सकते हो, वह मैं स्वयं
यह तो उन लोगों की विचारधारा है जो अद्वैत मानतै ॹ यह अद्वैत मानने वाले लोगों का चिन्तन है, एक विचार है, एक धारण tomar , वह है ही नहीं। द्वैत को मानने वाले भी विचारक है और वे कहते है कि अहं मैं तो इसको इसको हम मना नहीं कर रहे, मगर मेरे अलावा भी दूस दूसरी चीजें हैं जोatar जो मेरे ऊपर प्रभाव डाल सकती है तो दूसरी कोई चीतज ॰॰॰॰ोई वह यह नहीं कह हे कि तुम पीपल के पेड़ नहीं हो, इसको हम भी मानते हैं और तुम नदी हो यह हम म मान लेते हैं और तुम हिमालय हो यह हम म म म लेते मग तो तो फि फि फि फि फि क क क क प प प प पellas दूसरी चीज जरूर है जो प्रभाव पड़ता है और हम पर प्रभendr.
इसका मतलब ये चीजें कुछ और चीज हैं जो हम पर प्रभाव डालती है और प्रभendr अगर कोई दूसरी चीज है नहीं व्याप्त करने वाली, कोई चीज है ही नहीं, तो कभी तुम रोते हो, कभी तुम प्रसन्न होते, ऐसा क्यों होता है? इसीलिये लोग कह रहे है कि नहीं, एक ही चीज तब तक नहीं है, द्वैत है, वो चीज अलग-अलग है एक चीज ब्रह्म है और दूसरी वे सारी चीजे हैं जो इस ब्रह्म का प्रभाव डालती हैं, जिनको माया कहा गया है इसीलिये इन दोनों की अलग-अलग विद्वानों ने अलग-अलग तरह से व्याख्या की है और कोई भी शास्त्enas, कोई भी तभी आगे बढ़ बढ़ सकता है क एक ही ल ल ल की वguna यकtern अपनेija से यक यक।।।। razón
कानून, जो भारतीय कानून बनाये गये हैं, उसकी पुस्तक प्रकाशित है और दोनों वकील उस पुस्तक में लाइन के दो अलग-अलग अû निक निक है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है objetivo एक कहता है नहीं इस कानून क mí ठीक उसी प्रकार से द्वैत और अद्वैत मूल वस्तु स्थिति आत्म है प्रagaणश hablo
प्रश्न यही नहीं समाप्त होता है। यहां तो मैंने तुम्हें यह समझाया है कि द्वैत का अर्थ क्या है, अद्वैत का अर्थ क्या है और विद्वानों ने द्वैत क्यों कहा और विद्वानों ने अद्वैत क्यों कहा और प्रारम्भ से लगाकर आज तक अद्वैत को भी मानने वाले सैकड़ों ऋषि, संन्यासी, विद्वान हुये और द्वैत को मानने व siguez
अब प् Est. यह प् Est. जिनको कि देवता ही नहीं महादेव कहा गया है और उन्होने जो कुछ व्याख्याये की, जो कुछ चिंतन किया, जो कुछ तर्क दिया, जो कुछ बात कही, वह अपने आप में अत्यन्त सारगर्भित और महत्वपूर्ण है और जहां गुरू और शिष्य प्रसंग आया वहां पर शंकराचार्य नेस्पष्ट रूप से कहा-
पूर्ण सदैव पूर्ण मदैव रूपं गुरूवै वाताम पूर्ण वववव८ ष्यं
शिष्य गुरू से अलग है, शिष्य गुरू नहीं है और गुरू शिष्य नही है वे दोनों अलग है है है अलग-अलग है कि जीवन में में अद अ है नहीं नहीं देख देख अपने आपको छल छल छल देन Ndos तो अद्वैत के मीमांसाकारों ने अंत में हार माननी स्वीकार की है और द्वैत, यह सिद्धांत मानने वालों ने अपने आप को सही से से प्रतिपादित किया।।।।।। uto मूल बात यह कि जिन्होंने यह कह mí 60 प्रतिशत विद्वानों ने वेद से लगाकर अनवरत इस बात को कहा कि म mí. वह ब्रह्म जब शरीर में स्थित है तो वह शरीर उस माया से व्याप्त होता है।।।।।।।।। जब मैं सुख अनुभव करता हूँ तो ब्रह्म अनुभव नही कर रहा, मै अनुभव कर omin " है और निर importaador है तो उसके ऊपर नही किसी प्रकार का प्रभाव पड़ता है, वह एक अलग है है।।।।।।।।।।।।।।।
इसलिये गुरू और शिष्य भी अपने आप में द्वैत है। शिष्य की मर्यादा है, गुरू की मर्यादा है। गुरू एक तत्व बोध है, शिष्य भी एक तत्व बोध है या यो कहा जाय कि गुरू का एक बोध बोध स्वरूप है।।।।।।।।।।।।। जो गुरू अपने आप में पूर्ण है उसका एक घटक, एक कण, एक चिंतन शिष्य है, मगर शिष्य अपनी क्रिय के के म्यम से, अपने के म मguna, अपने अपने विच सकतenda लीन सकत सकतenda और लीन होकर के अद्वैत बन सकता है।
क्योकि शिष्य की अपनी एक स्थिति है, क्योकि जीवन क mí गुरू एक मर्यादा में बंधा हुआ है। उस मर्यादा के बाहर गुरू नही जा सकता, मगर शिष्य के सामने दोनों रास्ते खुले हैं क्योंकि उसको चलने का एक र है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है. गुरू स्थिर है, एक जगह खड़ mí जब ब्रह्म बन गया तो तब उसके लिये शरीर, म sigue. वह दुःख आने पर भी दुःखी नहीं होता, सरल भाव से लेता है, प्रuestos को हलवा मिठाई मिल गई तो भी ठीक है, सूखे टुकड़े मिल गये तो भी ठीक है। अगर ऐसा चिंतन उसके मानस में सहज रूप में है तो गु गु
गुरू की लिमिटेशन है, क्योंकि गुरू अपने ज्ञान के माध्यम से बढ़ता-बढ़ता उस ब्रuestos 36 विकारों में- काम, क्रोध, मोह, लोभ, लालच, स्वाisiones ये सब संचारी भ siguez संचार का मतलब है गतिशील, एक ही भाव स्थिर नहीं रह। जिनमें एक ही भाव स्थिuestos
शिष्य अपने आप में द्वैत है। शिष्य धीरे-धीरे अद्वैत की स्टेज में आ सकता है, वह पहुँच सकता है अपने आप में गुरू को स्थापित करके और अपने आपमें गुरू को स्थापन करने की क्रिया का प्रारम्भ होता है उसकी प्रारम्भिक स्थिति जो है दीक्षा और अंतिम स्थिति बनती है तब जब वह पूenas ूप से गुरूमय हो जाता है उसके सामने गुरू चिंतन ही दिखाई देता है।।।।। वह अगर ¢ की प्रशंसा करता है तो ऐसा लगता है कि मेरे सामने मेरे गुरू खड़े।।।।।।।।।।।। ¡Adelante! यह चिंतन जब उसके शरीर में, समाहित चिंतनों में विचारधारuerzo में समाहित हो जाता है संच संचारी भाव खत्म हो जाते है, क्योंकि कृष जब ° noega गये औ ° vuelve
Tulsi cabeza de loto, arco y flecha en la mano
मैं आपको प्रणाम तो करता हूँ मगर मुझे कुछ सान्निध्यता अनुभूत होती होती, मैं तब तक नमस्कार कर सकता हूँ तक तक तुम्ह Chr. बांसुरी हाथ में लिये हुये व्यक्ति को वह पहचान ही नही प sigue. और वह स siguez तब भी उसको वही गुरू का चेहरा दिखाई देता है, वह गुरू का शरीर आज तो बड़े नये ¢ में है पीत पीतguna मguna पहने है है, आज बड़ी ही पुष पुष पुष पुष पुष पुष वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह. मात्र गुरू का चित्र दिखाई देता है कि आज कितने सुन्दर ढंग से ये ये मुस्कुरaga ominó
यह दिखाई देने की क demás तब बनती है जब धीरे-धीरे शिष्य गुरू की ओर समर्पित होता है।।।।।।।। मैंने कहा, प्रारम्भ उसका दीक्षा से है। दीक्षा क mí पांच, तीन, एक इंच फिर आधा इंच और शिष्य का मतलब है निकट, निकटतर, निकटतम और पूर्णतया एक ज जाना। यह शिष्य की क्रिया है, यह शिष्य की गुरूमय बनने की क्रिया है और शिष्य की पूर्णता तब है जब वह गुरूमय बनता है, इसीलिये गुरू और शिष्य दोनों अलग-अलग है, बीच में डिफरेन्स है, वह पाँच फिट का हो सकता है वह डिफरेन्स तीन इंच का हो सकता है। ¿? जिसमें संसारी भ siguez वह उदास है, परेशान है, यह ऐसा हो गया वह ऐसा हो गया, वह बीच में छूट जायेगा। वह दो घंटे जो चिंतन किया, वह दो घंटे जो गुरूमय होना था, वह छूट जायेगा। वह गुरू चिंतन होना था, उस दूसरे चिंतन में चला गया फिर उसके बाद की अगर पाँच हजार मील जाये तो मैं ऐसा एक कर दूंगoque, वह घंटे प प हजguna मील मील ज तो तो क यellas. आधा घंटा फिर उसमें चला गया और फिर सोचा कि शादी हुई नही शादी होती तो खुश रहता। ये संचारी भाव उसको घेरे रखते हैं। घंटे तो दिन में 24 ही हैं और उन चौबीस घंटे में 12 घंटे में में। इसका मतलब तुम्हाisiones 16 साल की अवस्था तुम्हाisiones ही रहे इसीलिये पूरी जिन्दगी बीतने पर भी गुरू और शिष्य के बीस में जो पांच फीट की दूरी है वह बनी रहती है।।।।।।।। इसलिये जहां उसने प्रश्न किया है कि जहां शिष्य गलती करे तो, और गलती वह तब ही करता है जब उसमें संचारी भाव जाग्रत होते हैं या उसके ऊपर संचारी भाव होते हैं और जब संचारी भाव हावी होते हैं, जितने संचारी भाव हावी होंगे उतना ही शिष्य कमजोर होगा उतना ही शिष्यत्व से दूर होगा, क्योंकि संचारी भावों को हटाने के लिये एक कthरिया है वह गुरूमय बने और गुरूमय के के लिए नि नि sig pro गुnas गु जप। ।xto
यदि आपने देखा होगा तो पूर्ण एकाकार त्रिविध भाव प्रधान व्यक्ति ऐसे ही हैं।।।।।।।।।।।।।।।। ¿Está bien? राजा ने बुलाकर पूछा तो उसने कहा- बिल्कुल देखा, तुमने खुदा तो देखा और जी भर के देखा है कैसा है? ठीक लैला की तरह, ऐसी आंख है, ऐसी नाक है, ऐसा कान, ऐसा खुद उसका और कोई चिंतन नहीं, वह पूर posterir जब राजा जैसा आदमी पूछता है? तो हाँ देखा है, वह दम के साथ कह रहok है और जो विवरण दे रहा है, अपनी लैला का दे रहendr. ऐसी है, उसका चेहरा गुलाब की तरह मुस्कुरículo है, आंखें हिरणी की तरह हैं, वह सारी गाय, भेस, बकरी, स उसमें हैं हैं श में पत पत पत फूल फूल फूल फूल फूल फूल फूल फूल फूल फूल फूल फूल फूल फूल फूल फूल फूल फूल फूल उस उस उस उस उस उस उस उस उस उस उस उस उस उस उस उस उस उस उस उस उस उस उस उस उस उस उस केवड़ा, मोगरा और सांप की तरह लट और खजूर की तरह आंखें और फलदoque की तरह होंठ, वह सब पंछी पशु पशु बना कर खड़ा कर देता है।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।। वह नारी शरीर कहां चला गया, वह उसके मानस में कुछ नहीं क्योंकि वह संचारी भाव जाग्रत हो गया और शिष्य में जब संचारी भाव होगा, जितना भाव है उतना गुरूत्व कम रहेगा इसलिये मैंने कहा कि पूरे जीवनभर भी वह पांच फुट की दूरी बनी रह सकती है और यदि चाहे तो भी वह गुenas के चरणों में नहीं पहुँच सकता है इसलिये गलती तब होती है जब उसमें संचारी भाव होथै गुरू ने आज्ञा दी और तुमने पूरा किया, परन्तु अब तुम उसमे संचारी भाव जोड़ोगे तो वह दूरी पांच से साढ़े छह फीट बन जायेगी।।।।।।।।।।।।।।।। dos वह एक फीट पीछे सरकेगी, आगे की ओर नहीं बढेंगी क्योंकि तुम उसमें बुद्धि लगाओगे कि गुरू ने एक घंटे में को कह कहguna, डेढ़ घंटा हो जायेगा तो गुरू जी कौन सी फ दे देंगे औ चले चले।।।।।।।।।।।।। ।ija गु गु जी सी फ देंगे देंगे चले चले।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।। क्या बात है? लेट कैसे आये? गुरूजी मार्ग में गाड़ी पंचर हो गई, तो पहिया उतर गया था, पहिया ठीक किया थोड़ा। अब गुरूजी समझ रहे है, गुरू है तो बिल्कुल समझ हे है, मगर वह नही समझ समझ रहा है कि अभी यह पांच फीट पर था अब यह प प दो इंच इंचatar तुमने अपने वचनों से, अपने लक्षणों से, अपनी बुद्धि से अपनी दूरी बढ़ाई जबकि तुम्हारी ड demás. उनके नजदीक जाने में क्या करना है।
गुरू तो केवल एक कर्त्तव्य है वह गुरू है, वह तुम्हारा पति नहीं, वह तुम्हारी पत्नी नहीं वह तुम्हारा भाई नहीं, वह तुम्हारा सम्बन्धी नहीं है वरन् वह तुम्हारा गुरू है और गुरू की तो केवल एक ही कल्पना है, वह शिष्य को अपने में समाहित करे। अगर पति हूँ मैं, जिस क्षण मैं पति बनूंगा तो मैं पत्नी से उस ढंग से बात करूंगा, उस मैं गुatar में लीन हो, मगर जह siguez वह अन्दर लाने का प्रत्यन करता है और शिष्य उन संचारी भावों से दूर जाने का प्रयत्न करता है या नजदीक आने का प्रयत्न करता है इसलिये शिष्य को सापेक्षी कहा गया है कि शिष्य प्रयत्न करे और गुरू की तरफ बढ़े और प्रयत्न पूर्वक उन संचारी भावों को आप ही हटाये और फिर गुरू में लीन हो जाये फिर गुरू के चित्त और गुरू मंत hubte गुरू के चरणों की तरफ साफ-स mí कुछ दिखाई ही नहीं देता है, पेड़ में भी उस गुरू को ही देखता है, यह तुम्हाisiones
अब तुम जितने संचारी भाव कम कर सकोगे जितने गुरू मंत्र में लीन हो जितने अपने अपने मन में गुरू को धारण कर सकोगे जितना ही गुatar कोई भजन भी गा रहok है तो गुरू का भजन गा रहा है वह अपने आप में लीन है तो गुरू में लीन दिख दिखguna देता है हर स्थिति में गुरू ही दिख दिख देत है।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।। eléctrico ह demás ऐसी स uto आ सकती है है और ऐसी स uto आनtan आन उस उस ब्रह terc क raz सija सgon. गुरूत्व को प्राप्त करना जीवन के टॉप पर पहुँचना है, जहाँ पर आम आदमी नही पहुँच सकता है लाखों में से एक व्यक्ति ही पहुँच सकता है, दो व्यक्ति पहुँच सकते है कहता हूँ तुम्हारे मेरे बीच में बहुत कम फासला रह गया है और मेरे पास बहुत कम समय रह गया है इसलिये हम उस फासले को कितना जल्दी पार कर लें, यह तुम पर निर्भर है।।।।।।। ये संचारी भाव तो जाग्रत होंगे ही ही, तुम नहीं गाओगे तो आस पड़ोस वाला फिल्मी गाना तो गायेगा ही, तुम उन संचारी भ तोड़ नहीं तुम तुम तुम ब ब ह ह ह ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय ूमय—
मैंने एक किस्सा सुनाया कि अकबर दोपहर के समय समय, एक दिन दोपहर हो गई तथा नमाज पढ़ने का टाइम हो गया तो र रguna पर ही चί बिछ औ औ टेक टेक टेक कriba औ अल अल अल ° प्रेमी ने प्रेमिका को मिलने का टाईम दिया था, 'ठीक एक बजे आयेगी तो ही मैं मिलूंगा उसके बाद नहीं मिलूंगा' सुनकर प्रेमिका एकदम से हड़बड़ाती हुई घर से निकली की मां-बाप देखे नहीं, पांच मिनट का टाईम है फिर वह चला जायेगा। दौड़ती हुई जा रही थी, अकबर नमाज पढ़ रहok था चादर के ऊपर पांव रखती हुई चली।।।।।।।।।।।।। राजा पूरे भारत वर्ष का, बहुत गुस्सा आया, यह औरत है कि क्या है? मैं खुदा ¿¿¿¿ खैर फिर नमाज-इबादत अकबर करने लगा। वह वापस प्रेमी से मिलकर जो कुछ बातचीत, वापस आई, उस च sigue. तुम्हेंशर्म नहीं आती? ¿? लड़की ने कहा- खुदा की इबादत कर रहे थे, तुम्हें कैसे मालूम पड़ा कि मैं आई और मैंने चादर पर पांव रखा? ¿? मुझे तुम दिखाई ही नहीं दिये मुझे तो न चादर दिखाई दी और न आप। मुझे तो प्रेमी दिख siguez तुम्हें अल्ला दिखाई दे रहे थे या मैं दिखाई दे रही थी या चादर?
क्योंकि वह तो प्रेमीमय हो गई थी, वह गुरूमय हो गई थी इसीलिये न उसको अकबर दिखाई दिया न चादर दिखाई दी।।।।।।।। उसकी आँख के स siguez तुम गुरूमय बन जाओगे, यह संचारी भ siguez यह संचारी भाव अपनी जगह चलेंगे, तुम अपनी जगह चलोगे और फिर वह दो इंच का और सरकना हुआ गुरू के पास और मैं आशीर्वाद देता हूँ तुम तुम गुरूमय बन सको तुम गु गु में लीन सको।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।. आप एक विशाल सागर के समीप खड़े है, विस्तार अनन्त है इस सागर का और अनन्त ही रहस्य छिपे, इसकी गह गहराइयों।।।।।।।।।। पहुँच तो आप गए हैं— और यह पहुँचना आवश्यक है।
आवश्यक इसलिये, क्योंकि हर नदी बहती है केवल और केवल सागर में विलीन होने के लिये और सागर मतभेद नहीं न sigue. होगा उसमें। गुरू भी खुली बाहों से सदा खड़ा रहता है। निमंत्रण उसका हर क्षण बना रहता है और केवल एक क्षण की आवश्यकता होती है उसकी बांहों में समाने के लिये, उसकी आत्मा से एकाकार होने लिये।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।। उसकी ओर से कोई विलम्ब नहीं, वह कभी नहीं कहता, नहीं नहीं नहीं— कल!
कहता भी है, तो पहल आपकी ओर से होती है। यह तो चाहता है आप उसी क्षण, उसी लम्हें में सब त्याग कecer. परन्तु आप ठिठक जाते है। ऐसे खुले निमंत्रण से एकाएक आप भयभीत हो जाते है, संकोच करते हैं, भ्रमित होते है, और अपने व्यर्थ के आभूषणों-अहंकार, मोह, लोभ से चिपके चिपके हते हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं — और यह खेल है सब कुछ खो देने का। आप जिस भार के तले दबे जा रहे है, वह कोई परेशानियों या सांसारिक समस्याओं के कारण नहीं, अपितु अपने अहंक अहंकाellas के क क है razón गुरू है है भूल ज छोड़ दो हों ओ ओ ओ ओ हों ओ ओ ओ ओ ओ ओ ओ ओ ओ ओ ओ ओ ओ ओ ओ ओ ओ ओ ओ ओ ओ ओ ओ ओ दो हों हों हों हों हों हों हों हों हों हों हों हों हों हों हों हों हों हों हों हों हों हों हों हों हों हों हों हों हों.
वह संसार छोड़ने को नहीं कह रहok, न ही परिवार त्यागने को तुमसे आग्रह कर ा है, अपितु कह रहok है-
Sis utre bhui dhare, woh paysai ghar mahi
A mi hermana, a mi intelecto, a mi
समझ-बूझ को एक तरफ रख दो, क्योंकि इस यात demás में यह बाधक ही है।।।।।।।।।।। जब तक इसका त्याग नहीं होगा, वह अपेक्षित रूपान्तरण नहीं हो पायेगा, जिसका समस्त मानव जगत अधिकारी है।।।।।।।।।
अन्दर तुम्हारे एक बीज है, एक आत्मा है— उसको जगाना है, उसको पुष्पित करना है, तभी जीवन का वास्तविक आनन्द स्पष Dav. तब सांसारिक कार्य-कलापों में भी रत आप अनोखे आनन्द में डूबे रहेंगे, तब संसार अपनी समसutar.
समझाने से यह ब siguez हाँ इतना अवश्य हो सकता है कि गुरू की वाणी से आप एक क्षण के लिये अपनी निद्रaga से जाग्रत हो ज • और औ ले ले कि गु गु ठीक ह है है है चैतन favor दोबारा सो मत जाना। वही क्षण महत्वपूisiones यह विज्ञान है ही प्रैक्टिकल, मात्र पढ़ने से काम नहीं चलेगा।
और सद्गुरू तक आप पहुँच गये है, तो इस प्रक demás में उतरना और भी आसान है।।।।।।। कenas बस इतना है कि आप अपनी बुद्धि को एक तरह छोड़े उसे बीच में न लाये।
गुरू देने को तैयार है, एक क्षण में यह ivamente इसके लिये वर्षों का परिश्रम नहीं चाहिये। हाँ, पहले तो आपको ही तैयार होना पड़ेगा। गुरू तो अपनी अनुकंपा हर वक्त संप्रेषित करते ही रहते हैं, उसे ग्रहण करना है। गंगा तो विशुद्ध जल सद mí यह प्रैक्टिकल क्रिया है। बैठे-बैठे आप प्यास नहीं बुझा सकते और अग debe
अगर शिष्य या फिर एक इच्छुक व्यक्ति प्रयास करने के बाद भी बुद्धि से मुक्त नहीं हो पाता, तो गुरू उस पर प्रहार करता है और यही गुरू का कर्त्तव्य भी है, कि उस पर तीक्ष्ण से तीक्ष्ण प्रहार करे तब तक, जब तक कि उसके अहंकार का किला ढह न ज sigue. जब यह बांध गिरेगा तभी प्रेम, चेतना और कû कoque प्रवाह होगा तभी सूख चुके हृदय नई बहार का आगमन होगा, तभी पथररpir.
गुरू के पास अनेकों तरीके है प्रहार करने के कठोर कार्य सौंप कर, परीक्षा लेकर, साधना कराकर— और जब ये सभी निष्फल होते दिखे तो विशेष दीक्षा देकर वह ऐसा कर सकता है, परन्तु पहले वह सभी प्रक्रियाओं को आजमा लेता है ताकि व्यक्ति तैयार हो जाये, प्रहारों से वह इतना सक्षम हो ज mí कुछ बनो न बनो पर, उस आनन्द को प्राप्त कर सको। तुम्ह razuar no मैं जब सुबह-सुबह देखता हूँ तो सोचता हूँ कि ये सभी शिष्य है य mí ¿? क्योंकि चेहरे ऐसे थप्पड़ ख sigue. ¡Adelante! क्योंकि तुम में उत्साह नहीं है, एक चेतना नहीं है, एक जाग्रत अवस्था नहीं हैं? यह नहीं, तो तुम गुरूमय नहीं हो और जब गुरूमय बनोगे तो चेहरे पर एक अपूर्व चेतना, लाली मेरे लाल की, मैं भी हो गई लाल— की ल लguna— की ल लguna— वह खुद लालमय हो जाती है लालीयुक्त हो जाती है, उसका चेहरा लाल हो जाता है और मैं चाहता हूँ कि तुम्हारा प्रत्येक क्षण प्रफुल्लता पूर्ण हो, सफलता पूर्ण हो, ओज पूर्ण हो, जोश पूर्ण हो, उत्साह पूर्ण हो और गुरूपूर्ण हो, मैं ऐसा आशीर्वाद देता हूँ।
परम् पूज्य सद्गुरूदेव
Sr. Kailash Shrimali
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