इतिहास साक्षी है कि जब-जब मनुष्य का गुरू से, ईश्वर से, प्रकृति से से विश्वास समापutar ही उसे सीमा में बांधा जा सकता है। गुरू तो एक दर्पण की भांति होता है, जो अपने शिषutar
गुरू में इतनी ज्ञान की चेतना है, जिससे अपने शिष्यों को अभय प्रदendr. अपने शिष्य को अभय प्रदान कर पूर्ण ब्रह्मत्व प्रदान करते है और केवल ब्रह्मत्व प्रदान ही नहीं करते है अपितु शिष शिष को को पू बguna बgunaya आज के दौर में ऐसा असम्भव सा प्रतीत होता है, परन्तु यह असम्भव नहीं।।।।।।।।।। असम्भव को सम्भव बनाने की कला लोग भूल चुके हैं, इसलिये हम लगातार सत्य से दूág.
गुरूत्व के ज्ञान को अपना परिचय देने की आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि सुगन्ध को अपना परिचय देने आवश्यकता नहीं होती, सूर्य को तेजस तेजस avor दिख दिख की आवश आवश आवश नहीं होती वह तो है है िचय िचय दिख दिख दिख दिख है तो तो स स है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है — सूरज निकलेगा तो प्रकाश होगा ही, पुष्प खिलेगा तो सुगन्ध फैलेगी ही, उसके लिये अतिरिक्त प्रयास की आवश्यकता नहीं।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।। खरे सोने का कहीं पर विज्ञापन अथवा प्रचार नहीं होता, क्योंकि सोने का मात्र सोना होना ही पर्य Daviblemente है। है है है है है है है है जहां अपात demás है, अज्ञान है, असमर्थता है, वहीं पर द्वन्द है, लड़ाई-झगड़े हैं, छीना-झपटी है, जबर्दस्ती अपना स्थ Davथ बनाने की प् razón। है।।।।।।।।।।।।।। अपन Dav.
इसलिये गुरू पद कोई प्रतिस्पर्धा का विषय नहीं है, गुरूत्व कोई बलपूर्वक प्रagaप्त करने का विषय नहीं है।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।। गुरूत्व धारण करना तो तलवार की धार पर चलने से भी ज्यादा कठिन प्रक्रिया है, गुरूत्व धारण करना तो विष को कंठ में स्थापित करने की प्रक्रिया है, समस्त जड़-चेतन के हलाहल को पान करने की प्रक्रिया है— लेकिन गुरूत्व प्राप्त करना तो बहुत बाद की प्रक्रिया है। प्रारम्भिक प्रक्रिया के अनुसार तो शिष्यत्व प्राप्त करना आवश्यक है— और लोगों को शिष्य बनने की प्रक्रिया का ज्ञान नहीं है, यदि एकाध को है भी, तो भी वे अपने अन्दर शिष्यत्व को उतार नहीं पाते, क्योंकि शिष्यत्व धारण करने के लिये तो सर्वप्रथम अपने अहंकार 'मैं' को समाप्त करना होगा- और जब ऐसा होगा, तब व्यक्ति में श्रद्धा, विश्वास और गुरू-चरणों के प्रति प्रेम का भाव उत्पन्न ।ा। gaste
अतः यह ठीक ही कहा गया है, कि शिष्यता प्रagaप्त करना एक कठिन काisiones अपने जीवन को, अपने अस्तित्व को, अपने बोध को और अपने आपको समाप्त कर देने की कला ही शिष्यता है।।।।।।।।।।।।।।। एक योग्य शिष्य अपने आपको गुरू की आज्ञा से इतना समरस कर लेता है, कि वह स्वयं समापutar समस्त द्वैत समाप्त होकर अद्वैत का भाव आ जाता हैै प्रकृति क marca में में में, ब्रह्म का ब्रह्म में, शून्य का शून्य में विलय ज जाना ही शिष्यता है, गुरूत्व है और परम तत तत।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।। eléctrico eléctrica
Kumbh en el agua, hay agua en Kumbh, agua adentro afuera.
Cuando estalló el Kumbh, el agua se volvió como agua, decían los sabios.
जिस प्रकार जल से भरा हुआ एक कलश, नदीं में बहता है और जब कलश का अस्तित्व समाप्त हो जाता है, तब उस कलश का जल, नदी के जल के साथ एकाकार हो जाता है, तब कलश और नदी के जल में भिन्नता नहीं होती, दोनों को नदी का जल ही कह mí
और जब एक शिष्य के जीवन में इस प्रकार की घटना घटित होती है, तब वह जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त करता है, तब अद्वैत भाव आने पर उसकी स्वतः पूर्ण कुण्डलिनी जागरण की क्रिया सम्पन्न होती है, फिर वह उस कदम्ब के वृक्ष का रूप धारण कर सकने में सक्षम हो पाता है, जिसकी छाया तले समस्त विश्व, समस्त मानव जाति और यह समाज सुख-शान्ति का अनुभव करता है, ज्ञान की शीतलता प्राप्त करता है, ब्रह्मत्च की चांदनी में दमकते हुये, अमृतत्व के मानसरोवर में अवगाहन करता है ।
इस झूठ, छल, प्रपंच, कपट, माया-मोह के बंधनों को तोड़ता हुआ जीवन के उद्देश्यों को प्रagaप्त करता है— और तब इस सम समाज में अतृत्व लोग स स कह उठते हैं--
Vámonos bajo la sombra de Kadamba
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