जब से यह सब सोचन mí ध्यान एक रास है, महार marca है, महानृत्य जीवन की एक उमंग, जीवन का उल्लास, जीवन का सौभाग्य और सही अर्थों में कहा जाये तो जीवन की पूecerte है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है. क्योंकि मनुष्य केवल जन्म लेकर श्मशान तक की यात्र कर अपने-आप को समाप्त कर लेता है— एक पर्दा गिर जाता है और दूसरा जन्म प्रारम्भ हो जाता है— इस पर्दे के पहले जो जीवन था, उस जीवन का हमें कोई होश, कोई ज्ञान, कोई चेतना नहीं रह जाती।
जिस क्षण हम जन्म लेते हैं, उसी क्षण से सिर्फ एक ही जीवन हमारे सामने होता है। यह प्रभु की कृपा है कि उसने वर्तमान जीवन और पिछले जीवन के बीच एक एक पर्दा डाल दिया है, जिसमें उस जीवन जीवन का बोझ, दुख, दर्द इस में में नहीं सकें प पatar. इस जीवन का मर्म चेतना क्या है? इसको समझने के लिए कोई शास्त्र, वेद, उपनिषद्, पुराण नहीं बना है, कोई विश्वविद्यालय नहीं बना, कोई ऋषिकुल नहीं बना, किसी गुरूकुल में इसकी शिक्षा नहीं दी जा सकती— क्योंकि यह शरीर का भाग नहीं है— यह शरीर का विषय वस्तु नहीं है— यह तो आन्तरिक उल्लास है।
मन के अनutar का कोई पारस्परिक सम्बन्ध नहीं है।
प्रत्येक मनुष्य के शरीर में ivamente इस ivamente के के आदान-प्रदान से सुख-दुःख, हानि-लाभ, जीवन-मरण, प्रेम-घृणा, यश-अपयश सब की उत्पत्ति होती।।।।।।।।।।।।।।।।।। मैं किसी से प्रेम करता हूं, यह केवल एक रश्मि, पहले मनुष्य के शरीर से दूसरे मनुष्य के शरीर तक पहुँच कर इस भ भ की उत उत्पत Dav " इसका मन से कोई सम्बन्ध नहीं होता, क्योंकि शरीर का शरीर से जो सम्बन्ध स्थापित होता है, वह केवल विषय-वासनाओं से सम समguna है है क क क क सम हैellaधित है बन बनella. यह वैसा ही है जैसे किसी तालाब के ऊपरी तल पर हम लहरें देख रहें हों। वास्तविकता ज siguez समुद्र के गर्भ में जो मोती हैं, उनको भी नहीं परख सकेंगे— और मानव जीवन रूपी समुद्र में मोतियों की परख करने के लिए शûendr
और जब तक हम शरीर के अन्दर उतर नहीं सकते, जब तक हमें शरीर के अन्दर का ज्ञान नहीं है, तब तक केवल हम जीवन-मृत्यु के बीच में जूझते रहते हैं— हम रोज पैदा होते हैं, रोज मरते हैं— कभी प्रसन्न हो जाते है, कभी उदास हो जाते हैं— कभी चिन्तित हो जाते हैं, कभी उल्लासित हो जाते हैं— कभी कुछ नोट बटोर लेते हैं— कभी किसी से प प प क लेते औ औ हम क क होते होते उस उस उस उस उस उस त मश मश त त त तenda त त त त त त -timo ,
जब सब कुछ समाप्त हो जाना है? ¿Está bien? ¿Está bien? सही अर्थो में म siguez वह जो धन, पुत्र, पत्नी, बन्धु-बांधव एकत्र कर ominó ऐसा करके वह जो असल में चीज प्रagaप्त करने की आवश्यकता है- उसे खो बैठता है और जो नहीं एकत्र करने की आवश्यकता है- उसे एकत्र करते ηanto है है।।।।।।।।।।।। व्यर्थ के कचरे को एकत्र कर ominó '' 'आज मैं' ध्यान 'की उन गोपनीय विधियों को, उन गोपनीय ivamente हस को ही ही सgon. , मनुष्य कहल mí va कहना चाहिये और मनुष्य कहते हैं तो हमको मन को पहच mí.
जब तक हम मन को नहीं पहचानेंगे तब तक हम मनुष्य कहलाने के काबिल नहीं है, जैसे- किसी को गाय, भैंस, शेर, सियार कह सकते हैं, ठीक उसी प्रकार मनुष्य कह सकते हैं, क्योंकि जब तक हम मन और उस मन की मूल धारणा को समझेंगे समझेंगे, चिन्तन नहीं करेंगे तो पशु में और हममें कोई अन्तर ही नहीं सकता।
मनुष्य तब मनुष्य बनता है, जब मन से किसी को पकड़ने में सक्षम हो जाता है। इसीलिये इसके पूर्व हम जो कुछ कार्य करते हैं, वह ऊपरी हिसाब से करते हैं और कहते हैं यह कि- 'मैं मन से कर रहा हूं।।' प्रेमी यह कह रहा है- 'मन से प्यार कर रहा हूं।' किसी से प्यार करते समय वह कहता है- 'मन से तुम्हें चाहता हूं।' मगर ये शब्दों का खिलवाड़ है— क्योंकि मन तो उसके नियन्त्रण में है नहीं नहीं मन मन उस को समझ समझ नहीं नहीं उस को को पहच पहच नहीं किस अधिक अधिक अधिक अधिक अधिक मन मन मन इस इस किस किस किस किस इस इस मन मन मन मन मन मन मन मन मन इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस इस के म sigue. ¡Adelante! ऐसा व्यक्ति सही अर्थों मे मनुष्य नहीं बन सकता।
इस ब mí. यह इतना जटिल विषय है कि इसे शब्दों में नहीं बांधा जा सकता— हवा को बांधा नहीं जा सकता— तूफान को बांधा नहीं जा सकता— 'ध्यान' जैसे शब्द को बांधने के लिए 'शब्द' अपने-आप में बहुत छोटे रह जाते हैं। ध्यान अपने-आप में विस्तृत फलक है— पूरे आकाश को बांहों में नहीं भरा जा सकता— पूरे समुद्र को बाहों में नहीं नहीं नहीं समेटaños फिर भी इसे एक चिन्तन की गहराई के माध्यम से, एक विचार की आवश्यकता के माधutar
इसीलिये मैंने कहा कि प्रश्नों के माध्यम से उत्तरों के माध्यम से, मैं इस विषय को स्पष्ट करने कر प्रयत्न कσूंग कि न समझ razón शरीर और शरीर के नीचे भी एक ऐसी अवस्थिति है, एक ऐसी चेतना है, जिसको 'मन' कहा जाता है, उस को पकड़ने के लिए लिए शरीacer जब हम अपने शरीर के लिए व्यरorar. और उस चेतना को समझने के लिए आवश्यक है- हम ध्यान सो
अपने अन्दर उतर कर, अपने जीवन को समझने के लिए, शरीर की सीढ़ी बनाकर, जबatar बान्धव, पुत्र, म siguez जब व्यकorar जब ऐसी स्थिति में पांव रखेंगे, जब हम ऐसी स्थिति में आयेंगे, जब हम तटस्थ बनने की क्रिया का प्रellas
ध्यान, कोई वस्तु नहीं है जो बाहर से अन्दर आरोपित की जा सके। ज्ञान के माध्यम से, पुराणों के माध्यम से, वेद मंत्रें के माधutar ध्यान तो अन्दर से बहार आने की क्रिया है, अन्दर से उत्थित होने की क्रिया है अनguna लिए लिए लिए के के razón. की। सीढि़यां बनानी पड़ती हैं- विदेह बनने की, जहां न हर्ष होता है, न विषाद होता है। सीढि़यां बनानी पड़ती हैं- मन की और उस मन के पास पहुंचने पर जो बिम्ब दिख siguez
'ध्य' इति 'न' स 'ध्यान'— बाहर का कुछ भी ध्यान हो हो हो, बहार कुछ हो हो रहendr.
आंख मूंद कर बैठे रहने को ध्यान नहीं कहते। आंख बंद कर लेने से ध्यान नहीं होता। हिमालय में ज sigue. पातंजलि के योग दर्शन को पढ़कर, समझकर और सीखकर भी ध्यान को नहीं सीखा जा सकता, क्योंकि ध्य य सीखने चीज है ही नहीं।। ध ध तो तो अनुभव अनुभव कहते को को को कहते कहते कहते कहते कहते हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क. जो अन्दर उतरने की क्रिया को जान लेता है, जो मन के परे पहुँच जाता है, उसे ध्यान कहते।।।।।।।।।।।।।।।। जहां ध्यान है, वहां और कोई चीज नहीं रह सकती, या तो ध्यान रह सकता है या बाहर की चीज ही ही ह सकती।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।। eléctrica जब ध्यान ¢ तो फिर पत्नी, पति, पुत्र, बन्धु -बFंधव, कुछ नहीं रहेगok, दूसरे अर्थो में वह खुद भी अपने आप आप नहीं नहीं हेग हेग।।। favor उसस्थिति में पहुंचने की क्रिया को ध्यान ¿?
हमारे यहां मूलतः शब्द हैं- एक निर marca, एक साकार— किसी ने ¢ र को— किसी ने कृष्ण को— किसी ने ईसा को— किसी ने अन अन अन को म म • है।।।।।।।।।।।।।।।।।। eléctrica उनके सामने एक बिम्ब है, एक मूर्ति है, धनुष लिए हुए राम हैं, मुरली बजाते हुए कृष्ण हैं हैं पर टंगे हुए ईसा हैं- इस प्रक के चिन चिन क. क की क क क क क को सगुण चिन। कहते कहते कहते कहते कहते कहते कहते।।। कहते कहते।।।। कहते कहते कहते कहते कहते कहते कहते कहते कहते कहते।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।. कुछ ऐसे चिन्तक हुए हैं, जिन्होंने सगुण और साकार की स्थिति से अपने चिन्तन को हट हटा दिया है।।।।।।।।।।।।। वे बिल्कुल एक अलग स्थिति में खड़े हैं, 'कबीर' ऐसी पंक्ति में अग्रणी हैं, तो कहते हैं ब्रह्म का कोई स्वरूप है है, वह ल्मा है अविकaños देखने में गई, मैं भी हाक गई लाल। उसमें क्या खास बात है, उसे क्या कहूं, उस को क्या आकार दूं, उसका क्या रूप बताऊं- वह तो सर posterir प्रagaतः काल होने पर दसों दिशाओं में लाली भर जाती है, उस समय धनुष धनुष लिये हुए व्यक्तित्व नहीं होत, बासुंरी ी बज त होत त त त Nustr. में अपने-आप को अवस्थित देखता है तो, वैसा ही अनुभव करता है, वैसी लाली जो दसो दिशाओं में है।।।।।।।।।।।।।।।। जहां किसी प्عaga की मूर्ति नहीं है, किसी प्रकार कgon चित्र नहीं है है, और किसी प्रकाár.
ध्यान के न न निराकार की आवश्यकता है, न साकार की आवश्यकता है— जहां आकार है ही नहीं वहीं ध्यान है।। है है है है है है है है है है है है है है है है है आकाocar तो हमने बनाया है, हमने sigelar हमने कृष्ण को देखा नहीं है है, श्रीमद्भागवत में जो पढ़ा है, उसको एक आकार बनाकर 'कृष्ण' का नाम दे दिया- आक♣: ज ब नव शिष्य होता है, जब नया-नया बच्चा लिखना सीखने के लिए बैठता है, उसको स्लेट पर 'क' लिख देंगे— औenas वह वह बच बच अपनें ह ह में पेंसिल razón. दिनों के अभ्यास के बाद वह कागज हटा दिया जाता है, उसको कहा जाdos
मनुष्य की भी ऐसी ही स्थिति है, जब वह ध्यान की ओर प्रवृत्त होता है तो तो, उसे आक आकार दे दिया जाता है निरनن देखते देखते के लिए उस उस उस उस आक आक देखते देखते देखते देखते देखते देखते देखते देखते देखते देखते देखते देखते देखते देखते देखते देखते देखते देखते देखते देखते देखते देखते देखते देखते देखते देखते देखते देखते देखते देखते देखते देखते देखते देखते देखते देखते देखते देखते देखते देखते देखते देखते देखते देखते देखते देखते देखते देखते देखते देखते देखते देखते देखते देखते देखते देखते देखते. उसके आँखों में में 'कृष्ण' बस जाता है, उसके आँखों में ¢ र बस जाता है, उसकी आँखों में 'नानक' और 'ईसा' बस जाते हैं— और वह बिम बिम बिम उसके स स icio हो ज जija है।।।।।।।।।।।।।।। उसके आँखे बंद होती है, तब भी अभ्यास वश वह बिम्ब ही उसके आँखों के सामने आ जाता है— और लोग मान लेते हैं कि मैंने आँख बंद की की औ इष मेguna मे य ध ध ध ध Nr.. यह उतन mí दिखाई देता है।
यह तो ठीक ऐसी बात हुई- जब कोई प्रेमी अपनी प्रेमिका से बात करता है, वह निरन्तर उसके चित्र को निहारता रहता है, अपनी जेब में लिए हुए घूमता रहता है, वह चित्र उसकी आंखों के सामने घूमता रहता है— और वह जब आंख बंद करके देखता है तो प्रेमिका का बिम्ब उसकी आंखों के सामने साकार हो ज mí. । बिम्ब प्रेमी नहीं बन सकता- वह तो एक दृश्य है जिसे हम खुली आंखों से देख रहे थे या बंद आंखों से देख रहे थे।।।।।।।।
और यही सutar तो चारों ओर ल mí. ध्यान न सगुण का किया जा सकता है, न निर्गुण का किया जा सकता है।।।।। इन दोनों से परे हट कर जो अवस्थिति है, उस अवस्थिति में पहुँचने की जो क demás है- वह ध्यान है।।।।।।।।।।। ध्यान तो बहुत आगे की स्थिति है, इसीलिये यह आवश्यक नहीं कि आपके सामने कोई बिम्ब हो या यह कोई आवश्यक नहीं कि- आप हिन्दू हों, मुस्लिम य va सिख, ईस हों हों हों हों हों हों हों हों हों हों हों हों हों हों हों हों हों हों हों। यह आवश्यक नहीं कि आप राम, कृष्ण को पूजते हों। बस आप मनुष्य हैं, अतः अपने अन्दर उतर कर, सुदूर गहराइयों में पहुँच सकते हैं— और प्रत्येक मनुष्य पहुँच सकता है, यदि वह बुद्धि से परे हट सकता है तो, क्योंकि-बुद्धि ही सगुण और निर्गुण में भेद कहती है।, बुद्धि ही साकार और निर marca में भेद करती है है, ये साकार है— ये निराकार है— और जहां बुद्धि है वहां साकार और निरículo • दोनों है है।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।। eléctrico eléctrico स elécger छल-झूठ, ढोंग और पाखण्ड भय है। इसीलिये ध्यान न साकार का किया जा सकता है, न निर marca का किया जा सकता है
Pregunta: ध्यान का वास्तविक तात्पर्य क्या है और उसे किस प्عaga किया जा सकता है? ध्यान का वास्तविक तात्पर्य जब हम अपनी बुद्धि, अपने चित्त, संदेह, भ्रम, राग, द्वेष इन सबसे परे हट कर अन्दर की क्रिया का प्रारम्भ करते हैं- शांत चित्त से, जहां लहरें न उठती हों, जहां किसी प्रकार से तरंगे विवृत्त न होती हों, जह siguez
जहां ऊपरी भाव समाप्त हो जाता है, वहां एक नया आलोक पैदा होता है।।।।। जब हम एक छोटे कमरे से आगे बढ़ते हैं तो, आगे उससे बड़ mí स्तम्भ की स्थिति तक— निरन्तर पहुंचते रहते हैं और जब हम अन्तिम बिनutar
मनुष्य की स siguez पर पहुंचते हैं, उसे 'ध्यान' कहते हैं। प्रथम अवस्था 'वैखरी' का तात्पर्य है- हम अपने दइह म म वैखरी का तात्पisiones मैं जो कुछ कर रहok हूं वह ठीक कर रहok हूं या गलत कर रहok हूं? - इस बात का ज्ञान है कि, ध्यान भी कोई है है मुझे इस ब ब मुसलम भी भी हूं हूं हूं हूं।।।।।।। हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं—
यह अवस्था पशुओं में नहीं होती है, यह मनुष्यों में होती है। ऐसे कई पुरूष होते हैं जिनकी वैखरी अवस्था भी नहीह जो पशुता और मनुष्यता में भेद समझते ही नहीं, निरन्तर पशुता की ओर अग्रसár होते हें हैं हैं क Sah जह razón लगत आदमी सोचने य विच tan के अन्दर उतर कर, अपने आप को भुला देने की जो सutar हट कर, अन्दर उतरने के लिए अपना पांव बढ़ाया है, एक आगे आगे बढ़ाया है।।।।।
उसने यह अहसास किया है कि- बाहरी दुनिया, ब sigue. इस स्थिति का भान होना, अनुमान होन mí जिस समय ऐसे विचार मन में उठेंगे, तब उसे वैखरी अवस्था कहा जाता है, क्योंकि उस समय वह- अपनी की अवस्थ Chr.
मैंने तुम्हे बताया कि, शरीर से निरन्तर विद्युत तरंगें प्रवाहित होती रहती हैं, उनसे जब दूसरे शरीर की तरंगें स्पर्श होती है, तब उस दूसरे शरीर की तंरगों के स्पर्श से हम मालूम कर लेते हैं कि सामने वाला क्रोध कर रहा है या घृणा कर रहा है— प्रेम कर रहok है या हमे चाहता है— यह सब कुछ बाह्य तरंगों के आदान-प्रद से ही ज ज्ञात है है इसलिए म बीम razón
ये ब sigue. इससे परे हट कर जो पहली बार यह सोचता है- इस बाहरी शरीर के अन्दर कुछ और कtherv से आनन्द की उपलब्धि संभव हैं हैं— क्योंकि बाह्य रूप से तो उसने सब कुछ करके देख लिया, उसने मकान बनाया, घर बसाया, पत्नी विव • औ एक पत पत दो बदलेguna, पत dom. प्रेमी बदले— तिजोरियां भरीं, बैंक बैलेन्स बनाया— उसके बावजूद उसे जो कुछ आनन्द अनुभव होना चाहिए- वह नहीं हुआ, और जब अनुभव नहीं हुआ तब उसके मानस में यह चिन्तन स्पष्ट हुआ कि- 'कोई ऐसा तथ्य है, कोई ऐसी चीज अवश्य है '
ये बाह्य सुख अपने आप मे क्षण मात्र हैं। जो आज है, वह कल नहीं हैं। आज धन है, कल धन बचा नहीं रह सकता। धन के माध्यम से नींद नहीं प्राप्त हो सकती। धन के माध्यम से निश्चिंतता प्रagaप्त नहीं की जा सकती— भागते रहने की प्रक्رecer कोई अलग चीज है, जिसके माध्यम से आनन्द की अनुभूति हो सकती है— और जब वे विचार उसके मानस में लहरें लेने लगते हैं, जब आती है, दृढता जब मजबूती आने लगती है कि मुझे आनन्द प्राप्त करना ही है— लेकिन उसे यह पता नहीं ¿Está bien? ¿Está bien? ¿Está bien? मगर एक धारणा बन गई है, मजबूती आ गई, यह चिन्तन बना कि- जरूर कोई चीज है है म माध्यम से मैं आनन्द को प Davidamente
तीसरी अवस्था 'पश्यन्ती अवस्था' है। पश्यन्ती देखते रहने की क्रिया को कहते हैं। हम देख रहें हैं, मगर हम एक दूसरी आंख से देख रहें हैं, एक दूसरे तरीके से देख रहें हैं, भाव बदल गया है।।।।।।।।।।।।।। हमारी धारणा और चिन्तन बदल गया है। ठीक ऐसा ही देखने का भाव हुआ, जैसे- टिकट लेकर हम सिनेमा हॉल में बैठें हैं।।
सामने पर्दे पर किसी का पुत्र मर गया है— मन में कोई भाव नहीं उठ ivamente कोई लड़की बहुत सुन्दर नाच रही है। मन में कोई बहुत बड़ा विकार या विचार उत्पन्न नहीं हो ¢ ह।।।। बस केवल देख ¢ ह— देखते-देखते तीन घंटे बीत जाते हैं, और वह कुर्त्ता झटक कर बाहर आ जाता है।।।।।।। मगरतीन घंटो में वह तटस्थ होकर देख रहा है। उसमें इनवॉल्व नहीं हो रहा है। वह उस पर्दे पर जो कुछ दृश्य है, उससे अपनी तादात्यमता नहीं जोड़ ivamente है।।।।। उस पर्दे पर लडका मर गया है तब भी वह कुर्सी पर बैठकर छाती पीट कर ¢ नहीं लग लग हत है है वह केवल द्erv है, रूपये चले गये तब भी तटस्थ रूप से देखता रहता है घर में लड़ाई-झगड़ा हो गया, तब भी वह तटस्थ भाव मह र่ उसको कोई गाली देता है, तब भी वह तटस्थ रहता है। उसकी कोई प्रशंसा करता है, तब भी वह तटस्थ रहतok है और यह तटस्थ रहने की क्रिया, उसके जीवन में उतर जाती है तो, वह 'पश्यनorar तब केवल द्रष्टा भाव रहता है, वह देखता रहतok है- सभी रूपों में वह अपने-आप में स्थिर रहता है।।।।।। न हर्ष होता है, न विषाद होता है— मन में किसी प्रकार की कोई चिन demás होती ही।।।।।। वह केवल एक जगह खड़ा है और देखता रहता है। अपने-आपको उसमें लिप्त नहीं करता, अपने-आपको उसमें जोड़ता नहीं।। किनारे खड़ा होकर बराबर देखता रहता है।
समाज में चल रहा है, घर में रह रहा है। उसकी पत्नी भी है, पुत्र भी है, बन्धु-बांधव भी हैं, सामाजिक कार्य है, व्यापार भी करता है, नौकरी करता है, भगवान का भजन करता है, हरिद्वार में स्नान करता है, मगर ये सब एक द्रष्टा भाव से करता है, उसमें लिप्त नहीं हो ¢ ह और जब ऐसा भाव स्पष्ट हो जाता है, तो उसकी अवस्था को पश्यन्ती अवस्था कहा गया है।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।। है objetivo अपने-आप से अलग हट कर देखने की जो क्रिया है, वह अत्यन्त महत्वपूisiones विषाद पैदा होता है। वह एक उन्मनी अवस्था में आने की क्रिया प्रagaendo. किसी स्त्री को देखकág. किसी रोगी को देखकर उसके मन में घृणा पैदा नहीं हो
चौथी अवस्था 'अतल अवस्था' है। अतल-जिसका कोई ओर-छोर नहीं है, वह इस संसार में होते हुए भी इस संसार का नहीं होता। उसका परिवेश, उसका वातावरण, उसका जीवन पूरे ब्रह्म्म्ड में फैल जाता है— पूरा ब्रहς म्ड उसका साक ज जaños है है है है हैellas वह मन्दिर में भी उसी भाव से जाता है, मस्जिद में भी उसी भाव से ज mí.
उसके मन में द्वैत का भाव धीरे-धीरे समाप्त होने की क्रिया प्रारम्भ हो जाती है, अत्यन्त गहराई में जाने की क्रिया प्रारम्भ हो जाती है, जिसका कोई ओर-छोर नहीं है, जहाँ न हिन्दू है, न ईसाई है— जहां किसी प्रकार का राग-द्वेष नहीं है। यदि कोई गालिंया देता है, उसके मुंह पर थूक देता है तो, उसके चेहरे पर क्रोध का भाव पैदा नहीं होता। हenas उल्लास के वातावरण में भी उसके चेहरे पर कोई विशेष भाव पैदा नहीं होता।
ऐसी जब स्थिति आती है, उस स्थिति को अतल स्थिति यह ध्यान की ओर बढ़ने की अत्यधिक महत्वपूर्ण ऐसा व्यक्ति जीवन के सारे क्रिया-कलाप उसी ढंग से करता है, जिस ढंग से समाज का दूसरा व्यक्ति करता है।।।।।।।।। वह व्यापार भी करता है, नौकरी भी करता है, पत्नी के साथ भी रहता है— वह पति के साथ भी रहती है, मगर उसमें किसी प्रकार की हानि या लाभ की अवस्था नहीं होती— अपने-आप को वह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड से एकाकार कर लेता है। उसे पड़ोसी की मृत्यु पर दुःख होता है तो, वियतनाम में भी किसी व्यक्ति की मृत्यु पecer. यदि बंगाल मे भूकम्प आत mí
उसके सामने देश की भावना मिट जाती है। उसके मन में यह भाव पैद mí है- उसको उतना ही दुःख व्याप Est. वह किसी एक स्थान, एक देश, एक काल में बंध mí
पाचंवी अवस्था 'प्रagaण अवस्था' का तात्पर्य यह है कि- अब वह जीवन की उस ऊर्धίagaमी प्रवृति की ओर अग्रसर हो ह है है जह जह जह आगे आगे आगे धguna य जह ं ं नहीं विक विक विक विक विक विक विक नहीं ं ं ं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं. वह किसी भी स्थान पर बैठा है, उसके मन में किसी प्रकार की भ्रaga नहीं हैं हैं क्योंकि फिर उसके लिए भूखatar ही नहीं, कड़वा खाने पर उसे किसी प्रकार का बोध नहीं होता, मीठा खाने पर भी किसी प्रकार का बोध नहीं होत होत यह प सguna नहीं नहीं है है है नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है. म sigue.
यही वह अवस्था है, जहां शरीर समाप्त हो जाता है, और प्रaga प्रpir यही वह अवस्था है, जहां अन्नमय कोष समाप्त हो ज mí. अन्नमय कोष से परे हटकर प्रagaणमय कोष में पहुँचने की जो क्रिया है, वह इसी तल से प्रaga podrtar , उपनिषद् और कुरान और बाइबिल इन सभी को समान रूप से देखता है- उसे रामायण में वही दिखाई देता है— क्योंकि प्राण स्थिति के माध्यम से तो सर्वत्र प्राण एक साथ हैं— और ऐसी स्थिति में वह किसी घटना का साक्षीभूत बन जाता है, क्योंकि प्रagaण तो अन्दर से निकली हुई वह तरंग है जो पूरे ब्रह्माण्ड में फैली है है, अतः वह आंख बंद करके भी ब्रह Dav में जो घटन घटन घट नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं छिप छिप छिप छिप छिप छिप छिप छिप छिप छिप छिप छिप छिप छिप छिप छिप छिप छिप छिप छिप छिप छिप छिप छिप छिप छिप छिप छिप छिप छिप छिप छिप छिप छिप छिप छिप छिप छिप छिप छिप छिप छिप छिप छिप छिप छिप छिप छिप छिप छिप छिप. किसी भी स्त्री या पुरूष को देखते ही उसका पूरा पिछला जीवन साकार हो जाता है, मात्र पिछला जीवन ही नहीं कई-कई जीवन साकार और स्पष्ट हो जाते हैं- इस क्षण अमरीका में क्या हो रहा है, उसके सामने साकार है, क्योंकि प्राण सर्वत्र व्यापक है।
प्रagaण को नहीं नहीं होता, प्रagaण तो वह तरंग होती है जो समय के एक सेकण्ड के हजारवें हिस्से में पूरे पृथ्वी के 50 चक्कर लगा लेत • है चकendr. उसकी आंखों के सामने हो जाती है, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार जैसे टेलीविजन के पर्दे पर हम दृश दृश्य देखते।।।।।।।।।।।।।।।।।। वह क sigue " जाता है तो, उसके सामने से पर्दा हट जाता है, पिछला जीवन उसे साफ-साफ दिखाई देने ज जguna त है कि मैं कौन हूँ हूँ यह थ थ razón. व्यक्ति खड़ा है, वह कौन सी अवस्था में है, किस अवस्था में था— इससे मेरा क्या सम्बन थ थ थ थ इसके किस जीवन में क Dav सम Davaga थ थ थella. से बन बनella. में क्या सम्बन्ध होगा और इससे बीस जीवन आगे के जीवन में क्या सम्बन्ध होगा?
क्योंकि काल को फिर वह टुकड़ों में नहीं देखता। पूरे काल को समग्र रूप से एक साथ देखता है औecer इसीलिये प्रagaणगत अवस्था में पहुँचा हुआ व्यक्ति एक उच्चकोटि का परमहंस अवस्था प्रagaप्त व्यक कहल कहल razón है, एक संत कहल ण की कहल कहल प N. एक प प पella. वे प्राण जो समस्त ब्रह्माण्ड में व्याप्त है। वे प्राण जो अपने आप में निर्विकार, निर्विचार ंैंैंैहै Ver más प्राणगत अवस्था में पहुँचने पर ईश्वर उसके सामने उपस्थित नहीं रहता क्योंकि, जहां ईश्वर का बोध होगा- वहां राम, कृष्ण, नानक, ईसा का बोध होगा— इससे सर्वथा अलग हटकर वहां पर उसके सामने एक ब्रह्म की अवस्था प्रारम्भ हो जाती है- एकमात्र ब्रह्म होता है, जो सर्वत्र व्याप्त है।
प्राणगत अवस्था जीवन की एक उच्चतम अवस्था है, एक श्रेष्ठतम अवस्था है।।।।।।। जहां पर भूख, प्यास, नींद सुख-दुःख विलाप कुछ महत्व नहीं रखतok। जहां देश, काल, पात्र महत्व नहीं रखते। वह समस्त संसार को बैठा-बैठा निर्विकार भाव से देखता रहतok है।। वह समझ लेता है- कह siguez उसका प्रagaण समय के हजारवें हिस्से में अमरीका, वियतनाम, अफ्रीकF के घने जंगलों पहुँच ज ज थ है हैellas है अवसellas जाने पर ही संभव होती है। अगला तल 'निर्बीज अवस्था' है। निर्बीज का तात्पर्य है- प्रagaणगत अवस्था से भी आगे पहुँचने की क्रिया। प्राणगत अवस्था में तो विश्व में या ब्रह्माण्ड में जो घटना घटित होती है, हम उसके साक्षीभूत मात्र होते है, हम केवल द्रष्टा होते हैं, केवल देखते रहते हैं- इस समय अफ्रीका में क्या हो रहा है, न्यूयार्क में क्या हो रहा है, वाशिंगटन में क्या हो रहok है— या मेरी पत्नी क्या कर ominó
जब वह इसके आगे बढ़कर 'निर्बीज' अवस्था में पहुँचत mí अपने मन की तरंगों के माध्यम से हिंसा की घटना को रोक सके, उनको परे हटा सके— उस में वह स्थिति पैदा हो जाती है जब वह एक हिंसक पुरूष को भी अहिंसक बन सकत है है है है है है।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।. वह सर्प-विष को भी अमृतमय बना देता है, वह बिगड़े हुए सांड को भी अपने आप में श शांत और स sig.
क्योंकि उसमें क्षमता प्रagaप्त हो जाती है कि वह प्रकृति में हस्तक्षेप कर सके। मनुष्य के विचारों में हस्तक्षेप करके उसके अन्दर जो जहर है, जो विषैलापन है, जो हिंसा है है दूर कर सके और औ ऐस्ति कguna दू दू भ भ है razón. । इतनी हिंसायें होती हैं उन हिंस siguez लोभ के वशीभूत वशीभूत होकर जितनी हत्याएं हो रहीं हैं- उस लोभ को, उस पाशविक प्रवृति को मनुष्य के अन्दर से हटाने की क्षमता, ऐसे व व्यक में आ जाती है है।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।। है है है है है elécitario उसे यह क्षमता प्रijaत हो जाती है कि अन्दर की दुष्प्रवृतियों को परे धकेल कर उनको चिन चिन्तन दे।।।।।।।।।।।।।।।। हिंसक को अहिंसक बना कर उससे रचनात्मक काम ले सकेे
एक हिंसक व्यक्ति चाकू से किसी को घायल कर सकता है और— यदि निर्बीज सम्पन्न व्यक्तित्व उसकी उस भावना को हटाकर उसके हाथ में पेंसिल और कागज दे देता है तो, वो एक अच्छा चित्र भी बना सकता है— उसमें हिंसात्मक प्रवृत्ति थी, पर हिंसात्मक प्रवृत्ति ही पेंसिल के माध्यम से सुन्दर चित्रकारी में परिवर्तित हो गयी— पूरा रूपान्तरण ही कर दिया— प्रवृत्ति तो रही पर प्रवृत्ति को रूपान्तरित कर दिया— यह उच्चतम अवस्था है, यह महत्वपूर्ण अवस्था है क्योंकि, ऐसा ही व्यक्ति गुरू बनने का सामर्थ्य रखता है, यहीं पर सद्गुरू बनने की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है। अभी तक इसके पूर्व जो अवस्था थी, वह केवल गुरू की अवस्था थी। लेकिन इस तल पर एक सद्गुisiones धारणा दूं।''
इसके आगे की स्थिति 'मनस अवस्था' है। इस तल पecer इस जगह पर पूर्ण समाधि, पूर्ण निश्चिन्तता प्रagaप्त करने की अवस्था है, फिर उसके में कोई भ भावना नहीं हती endr सातवें तल को जब वह स्परorar पूर्णता प्राप्त होता है। उसके मन में काम, क्रोध, लोभ, मोह होत होता, उसके अन्दर किसी प्रकok की कोई प्रवृति नहीं।।।।।।।।।।।।।।। वह तो तटसutar सकता है। मन को रूपान्तisiones जब मनुष्य उस जगह पहुँच जाdos फिर भले ही उसकी आंखें खुली हों, तब भी ध्यानावस्था में होता है।
Pregunta: ¿Está bien? इसे प्रagaप्त करने के लिए जो रास्ता बताया गया है, इस ¢ स पecer. हो सकता है प्रaga podrtar यहां पर गुरू की आवश्यकता होती है— इन कठिनाइयों से बचाने के लिए ही एक सहार marca, एक माध्यम के रूप में सद्गुरू की की आवश्यकता पड़ती।।।। है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है आवश आवश आवश आवश आवश आवश आवश आवश आवश आवश आवश आवश आवश आवश आवश आवश आवश आवश आवश आवश आवश आवश आवश आवश आवश आवश आवश आवश आवश. यह आवश्यक नहीं कि गुरू हो तभी ध्यानावस haber
इस रास्ते में कांटे ज्यादा हो सकते हैं, उसमें झाड़, झंखाड़, ज्यादा हो सकते हैं, भटकने की्रियendr. इसीलिये इसको प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि कोई सहायक हो, कोई सहार marca, कोई माध्यम, कोई गुरू हो जो सही अ अ सद चुक चुक चुक हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो चुक चुक चुक चुक चुक चुक चुक चुक चुक चुक चुक चुक चुक चुक चुक चुक चुक चुक चुक चुक चुक चुक चुक चुक चुक चुक चुक चुक चुक चल चल चल चल चल चल चल चल चल चल चल चल चल चल चल चल चल चल चल चल चल चल चल. फिर भले ही वह इस दुनिया में रहे या हिमालय में रहे फिर वह साधारण अवस्था में रहे या दिखाई दे। फिर वह भले ही गैरिक वस्त्र पहने हुए हो या सामान्य श्वेत वस्त्र पहने हुए हो- वस्त्र अपने आप में कोई महत्व नहीं रखता। लम्बाई, मोटाई, ऊँचाई अपने आप में कोई महत्व नहताख महत्व रखती हैं तो- उसका चिन्तन, उसकी गहराई में उतरने की क्रिया, इस रास्ते पर चलने का भाव। इस रास्ते से परिचित होने की क्रिया।
जो इस रास्ते पर चल कर ध्यान की अवस्थ♣ तक पहुंच गया है, ऐसा कोई सद्गुरू मिल जाता है तो मनुष्य का सौभाग्य है इस व despla. ऐसा गुरू मिल जाता है तो मनुष्य जाति का सौभाग्य होता है कि उस युग में किसी ऐसे गुरू ने जन्म लिया। यह मनुष्यता का अपने-आप में सौभाग्य होता है कि उसके बीच में ऐसा कोई सद्गुरू है। उन व्यक्तियों को अपने-आप में सौभाग्य होता है कि वे ऐसे सद्गुisiones जीवन में श्रेष्ठतम सौभाग्य की स्थिति तभी होती है- जब ऐसा सद्गुरू उसे मिल जाये, उसे अपना ले, उसका हाथ पकड़ ले— और सही पगडण्डी पर खड़ marca, आगे ओ वृतguna लिए वृत ने पella। प प पella जिसके जीवन जीवन में यह घटन mí
यह जीवन में एक उछाल की अवस्था होती है, मनुष्यता से आगे चल कर पूर्णता की क्रिया प्रagaप होती है।।।।।।।।।।।।।।।।।। जिसके जीवन में भी यह बिन्दु घटता है, उसकी तुलना तो देवता भी नहीं कर सकते। पूरी मनुष्य जाती उसकी ऋणी हो जाती है। यदि ऐस mí जब व्यक्ति ध्यानावस्था में पहुँच ज mí. समस्त सिद्धियां उसके सामने नृत्य करती रहती हैंैं विजय वर-माला लिये टुकुर-टुकुर निहारती रहती है।
लाखों-करोड़ों अप्सराएं उसके सामने नृत्य करतऀ थह थह ऋद्धि और सिद्धि हाथ बांधे उसके सामने खड़ी रहतै ै तब उसके चरणों में हजारों-हजा Para superminar तब ऊंचे-ऊंचे श्रीमंत उसके चरणों में नमस्कार करते हुए दिखाई देते हैं। क्योंकि कई हजार वर्षों बाद ऐसा व्यक्तित्व अवतरित होता है— जन्म नहीं लेता, जन्म लेने का तो एक अहसास कर sigue कई हजारों वर्षों बाद ऐसी घटना घटती है। इसलिये ऐसे व्यक्ति का जिस पीढ़ी में भी अवतरण होता है, वही पीढ़ी भाग्यशाली होती है— न उससे पहले की सौभ सौभाग्यश Chr. उसी पीढ़ी को यह सौभाग्य प्रagaप्त होता है, जिस पीढ़ी के समय एक सद्गुरू इस पृथ्वी तल पर अवतरण होता है।।।।।।।।।।।
बार-बार ईसा मसीह पैदा नहीं होते, हजारों वर्षों के बाद ईसा मसीह पैदा होते हैं।।।।।।।। कई हजार वर्ष बाद एक महावीर, बुद्ध, कृष्ण पैदा होंोंोंों हर वर्ष कृष्ण पैदा नहीं होते, राम पैदा नहीं होते, हर दस-बीस वर्ष बाद बुदutar हिंसा, द्वेष, मार-पीट, छल-कपट और लड़ाइयां बढी हैं, शांति समाप्त हो गयी है— जब ऐसे व्यक्ति का अवतरण होता है, तब युग परिवर्तन की क्रिया सम्पन्न होती है और यह इस पीढ़ी का सौभाग्य है— जिस पीढ़ी के पास ऐसा व्यक्ति होता है, वह पीढ़ी अपने आप में महत्वपूर्ण होती है, क्योंकि उसके सम्पर्क में में, उसके प औ में में में razón. में आते हैं। वे उसके पास की क्रिया कर सकते हैं, वे ही उसके सान्निध्य में ivamente का सौभाग्य प्रagaप sup. कर सकते।।।।।।।।
ऐसा ही व्यक्व मनुष्य की उंगली पकड़ कर उस जगह पहुँचा देता है जहां देह की सातों अवस्थायें समाप्त होकर, ध्यान की अवस्थ Chr compañero होती होती है।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।. जो ध्यान की अवस्था है, वह अपने-आप में पूर्णता की अवस्था है, एक बूंद से समुद्र बनने की अवस्था है, प्रagaacho
परम् पूज्य सद्गुरूदेव
Sr. Kailash Shrimali
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