समाज और स sigue. हमारी भारतीय संस्कृति व मानक सिद्धांत, जो संस्काisiones , पारिव marca एवं सामाजिक कर्तवúmá का बोध संस्कार-ग्रहण तदनंतर मृत्यु के संस्का razón. सभी षोड़श संस्काisiones
हमारे देश में प्रचलित धारणा है कि कुछ संस्कार जन्मजात होते हैं हैं जिन पर पूर्वजन्म की छाप होती।।।।।।।। इसी कारण कुछ बालकों में महापुरूषों के लक्षण बाल्यावस्था से ही दिख sigue उन्हें क्या बनना है- उसके लक्षण स्पष्ट दिखने लगते हैं, फिर समुचित व sigue. इसीलिये हमारे सम siguez संस्कार हमारे मन पर मनोवैज्ञानिक असर भी डालते हैं, साथ ही साथ हमें कर्तव्यनिष्ठ एवं धर्मपacion -भी बनाते हैं।।।।।।।।।।
एक सम्रagaट के रथ के थोड़ी दूर आगे साधारण-सzos ¿¿¿¿¿¿¿¿¿¿¿¿¿¿¿¿¿¿¿¿¿¿¿¿¿¿¿¿¿¿¿¿¿¿¿¿¿¿¿¿ ऐसा समझकर एक सैनिक उस महात्मा के पास पहुँचा, बोला- 'हटो रास्ते से, देखते नहीं सम्रaga की सवारी आ ही है है है है है है है है है है है मह sigue. महात्मा की इस हठ की शिकायत अंगरक्षक ने सम्राट से सम्राट को बहुत क्रोध आया। रथ महात्मा के पास पहुँच चुका था। सम्राट ने कहा- 'हटो सामने से कौन हो तुम?' महात्मा ने विस्मित भाव से कहा- मैं सम्राट हूं। यह बात सुनकर सम्रagaट को और अधिक क्रोध आ गया, वह बोल mí
महात्मा ने कहा- कीमती वस्त्रें से सुसज्जित, स्वर्ण रथ पर सवार संस्कारविहीन अहंकारी व्यक्ति सम्रagaट कैसे हो सकता है? सम्रagaट तो वह है, जिसक sigue जिसे स्वयं पर अनुशासन नहीं, वह किसी राज्य का शासन कैसे चला सकता है? महात्मा की बात सुनकर सम्राट नतमस्तक हो गया।
निष्कर्ष यह है कि जीवन एक यज्ञ है, संस्कार इस यज्ञ के आधार हैं, किन्तु साधना और संकल्प इस यज्ञ की पूर्णत va।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।. संस्कार-संपन्नता मानव-जीवन को अनुशासित करने की एक साisiones मानव-शरीर अनुशासित-प्रक्रिया का जीवंत स्वरूै ॹ अनुशासन और संतुलन में संबंध है। जिस प्रकार जरा-सा संतुलन बिगड़ने पर शरीर रोगग्रस्त हो जाता है, ठीक उसी प्रकाár. संस्कार हमारे आंतरिक सद्गुणों की वृद्धि करके अनुशासित जीवन जीना सिखाते हैं।।।।।।। साथ ही ज्ञान के माध्यम से जीवन में में शुचित mí, श्रेष्ठता, मनोरथों की पू sigocar. दुरorar.
संस्कार से मनुष्य में योग्यता आती है। मनुष्य जीव के रूप में जन्म लेता है। पालन-पोषण, सं¢ से उसकी उसकी प्रellas वह जीवन जीने की प्रक्रिया प्रारम्भ करता है। लेकिन एक व्यवस्थित जीवन जीने, सार्थक जीवन जीने के लिये जीवन-प्रक्रिया को निखारने की जरूरत होती है, जिसकी पूर्ति संस्कार से ही है।।।।। है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है eléctrico संस्कार-प्राप्ति का वह पल उसके ज्ञान-जगत् का हो ाॲ किन्तु संस्कार-प्रagaप्ति ही पर्याप्त नहीं है, अपितु प्रagaप demás-संस्कार के अनुरूप साधना भी आवश्यक है है है है है है है है है है है है है साधना ही व्यक्ति के जीवन को निखारती है।
मानवीय संस्काisiones तेजोमय संस्कार के सद्गुणों के आलोक से ही भौतिक जगत् के तमस को दूर करना संभव।।।।।।।।।।।। सिर्फ आदमी ही एक ऐसा जीव है, जो रोते हुए पैदा होता है, शिकायतें करते हुए जीता है और हर समय ऊपर वाले पर नoque न sigue. सब कुछ होने के बाद और पूर्णरूपेण भोग-विलास में लिपutar इससे तो पशु अच्छे हैं, जिन्हें कभी किसी से गिला शिकवा नहीं होता। बीज से ही वृक्ष बनता है, जैसा बीज होगा, वैसा ही वृक्ष होगा, हम प्रकृति के नियमों को बदल नहीं सकते।।।।।।।।।।।। जैसा आचार -विचF व्यवहार हम करेंगे, हमें उसी के अनुसार फल मिलता है।
यह शरीर किसका है? इस शरीर पर किसका अधिकार है- यह शरीर क्या पिता का है, माता का है या अपना स्वयं का है? 'पिता कहता है कि यह मुझसे उत्पन्न हुआ है, इसलिये इस श¢ 'मां कहती है कि' मेरे गenas से यह यह उत्पन्न हुआ है 'इसलिये यह मेरा है।' 'पत्नी कहती है कि' इसके लिए मैं अपने माता-पिता को छोड़कर आयी हूं, अतः इस पर मेरा अधिकार है।।।।।।।।।। इससे मेरी शादी हुई है, मैं इसका आधा अंग बनी हूं, इसलिये यह मेरा है। ' 'अग्नि कहती है कि यदि शरीर पर माता-पिता, पत्नी का अधिकार होता तो प्रagaण जाने के बाद वे घ घर में ही क Dav. इस शरीर को श्मसान पर लाकर लोग इसे मुझे अर्पण करते हैं, इसलिये इस पर मेरा अधिकार है। ' -
प्रभु कहते हैं, 'यह शरीर किसी का नहीं है। मैंने इस जीव को अपना उद्धार करने के लिये दिया हैा है यह शरीर मेरा है।
संसार में दुखों का प्रधान कारण मोह है। ना मालूम कितने लोग प्रतिदिन मरते हैं और कितने लोगों के धन का नित्य नाश होता हैं, पर हम के के लिये नहीं रोते, किन्तु यदि यह यह ज वguna म म म धन धन धन धन धन धन धन धन धन धन धन धन धन धन धन धन धन धन धन धन धन धन धन धन धन धन धन धन धन धन धन धन धन धन धन धन धन धन धन धन धन धन धन धन धन— इसका कारण मोह ही है। हम sigue, एक मकान है, यदि कोई आदमी उसकी एक ईंट निकाल लेता है तो हमें बहुत बुरा लगता है। हमने उस मकान को बेच दिया और उसकी कीमत का चेक लिायय अब उस मकान की एक-एक ईंट से साisiones मोह निकलकर हमारी जेब में रखे हुए उस बैंक के चेक में गय गया।
अब चाहे मकान में आग लग जाय, हमें कोई चिन्ता नहीं॥ चिन्ता है उस कागज के चेक की। बैंक में गये चेक के रूपये हमारे खाते में जमा हऋ इ अब भले ही बैंक के लिपिक उस कागज के चेक के टुकड़े को फाड़ डाले, हमें चिन्ता नहीं। अब उस बैंक की चिन्ता है कि कहीं बाऊन्स ना हो जाथ९ो क्योंकि हमारे रूपये जमा हैं। इस प्रकF sigue भक्त तो सû अपने अपने प्रभु को अर्पण कर उनको अपना बना लेते हैं और स्वयं उनका बन जाते हैं।।।।।।।। उसमें कहीं दूसरे के लिये मोह ivamente हत नहीं नहीं, इसलिये वह शोकरहित हुआ। सर्वदा आनन्द में मग्न रहता है।
हम केवल सुख चाहते हैं, मगर हमारे सुख की परिभाषा केवल धन प्रagaप demás है, धन आ जाय सुखी ज जija। परन्तु ऐसा नहीं है, धनवान भी घोर दुखी हैं, धन के साथ जो व्यसन आ जाते हैं, उनसे यद यदा-कदा ही प पाते हैं।। हैं हैं हैं धन का सदुपयोग करना जान जाये तो सुख अवश्य मिलेगाे सरल हृदय, अच्छा व्यवहार, सबका सत्कार, सीमित आवश्यकताएं, सात्विक आहार, परोपकार, समाज और देश पthervoso
ama a tu madre
Shobha Shrimali
Es obligatorio obtener Gurú Diksha del venerado Gurudev antes de realizar cualquier Sadhana o tomar cualquier otra Diksha. Por favor contactar Kailash Siddhashram, Jodhpur a Correo electrónico , Whatsapp, Teléfono or Enviar para obtener material de Sadhana consagrado, energizado y santificado por mantra, y orientación adicional,
Compartir vía: