आप सब भी ऐसी ही स्थिति मे हैं। आपके अन्दर भी एक छोटा स mí. एक तो बुद्धि है, जो विचार करती है, और एक हृदय है, जो अनुभव करता है।।।।।। हमारे अनुभव की ग्रंथि बंद रह गई खुली नहीं, गांठ बनी रह गई है।।।।। गई हमारे अनुभव करने की क्षमता पूर्णरूप से विकसिह थह २ ¿? लेकिन प्रश्न अगर जरा गलत हुआ तो उत्तर कभी सही नहीं हो पाएगा। मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, भगवान कहां हैं? मैं उनसे पूछता हूं? भक्ति, श्रद्धा, विश्वास पहले होना चाहिये। लेकिन उनका प्रश्न विचारणीय है। वे कहते हैं, जब तक हमें भगवान का पता न हो, तब तक भक्ति कैसे करें? किसकी भक्ति करें? कैसे करें? ¿Está bien? अपने भगवान, अपने इष्ट, गुरू पर विश्वास पहले ोतहााय तभी हम झुक सकेंगे?
चूंकि भगवान की खोज उन hubte भक्ति के लिये भगवान की कोई जरूरत ही नहीं है। ¿Está bien? भक्ति के लिये सिर्फ तुम्हाár. प्रेम को इतना बढ़ाओ कि अहंकार उसमें डूब जाये, लीन हो जाये। जहां प hubte भक्ति का भगवान से कुछ भी संबंध नहीं है। भक्ति तो प्रेम का ऊर्ध्वगमन है। प्रेम को मुक्त करो क्षुद्र से प्रेम को बड़ा करेेे प्रेम की बूंद को सागर बनाओ। जिससे भी प्रेम करते हो, गहनता से करो। जहां भी प्रेम हो, वहीं अपने को पूरा उडेल दो। कंजूसी न करो। अगर प्रेम में कृपण हो, तो प्रेम नहीं रहता और प्रेम अगर अकृपण हो, तो भक्ति, श्रद्धा आनन्द बन जाता है और जहां तुम्हारे अन्दर भक्ति, श्रद्धा, विश्वास अपने गुरू, अपने इष्ट व भगवान के प्रति जागृत हुआ वहीं तुम्हें पूर्णता प्राप्त हो जायेगी , तुमसे कहा गया है बार-बार कि भगवान पर भरोसा करो ताकि भक्ति हो।।।।।।।। ¡Adelante! अब भक्ति की जिज्ञासा करें। और जिसने भक्ति की जिज्ञासा नहीं की, वह आया तो संसार में लेकिन संसार में व्यर्थ ही जीवन गंवाया। जीया और जी नहीं पाया, उसकी जीवन कथा दुर्दिनों की कथा है और दुर्घटनाओं की।।।। अवसर तो मिले, लेकिन कोई भी उपयोग नहीं कर पाये। जो बिना श्रद demás, प्रेम, भक्ति के बिना जी लिया, जो बिना गुरू को जाने जी लिया, उसका जीवन जीवन है।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।
श्री विवेकानंद ने कह mí उसके पहले तो जो जाना था, वह मृत्यु ही थी। उसे भ्रांति से जीवन समझ बैठा था। जब आंख खुली तब पहचाना रोशनी क्या है। उसके पहले जिसे रोशनी समझी थी, वह तो अंधेरा निकथला जब हृदय खुला तो अमृत की पहचान हुई। एक राजा का दरबार लगा हुआ था। क्योंकि सर्दी का दिन था इसलिये राजा खुली धूप में बैठा था। पूरी आम सभा सुबह की धूप में बैठी थी। मह sigue, के सिंहासन के सामने एक टेबल पर कोई चीज चीज रखी थी। पंडित, दीवान व प्रजा आदि सभी दरबार में बैठे थे। राजा के परिवार के सदस्य भी बैठे थे। उसी समय एक व्यक्ति आया और प्रवेश माँगा, प्रवेश मिला तो उसने कहा मेरे पास दो वस्तुयें हैं, मैं हर राज्य के राजा के पास जाता हूँ और अपनी बात रखता हू कोई परख नहीं पाता सब हार जाते हैं और मैं विजेता बनकर घूम रहा हूँ अब आपके नगर में आया हूँ। र sigueal हाँ दिखायी तो एक सी देती हैं लेकिन इनमें से एक है बहुत कीमती हीरा और एक है काँच का थुा
लेकिन ivamente ंग सब एक है कोई आज तक परख नही पाया कि कौन सा हीर gaste? और कौन सा काँच? कोई परख कर बताये कि हीरा है या काँच। अगर परख खरी निकल गयी तो मैं हार जाऊगाँ और यह कीमती हीरा मैं आपके ivamente यदि कोई नहीं पहच siguez इस प्रकार मैं कई राज्यों से जीतता आया हूँ। र sigueal सब हारे, कोई हिम्मत नहीं जुटा पाया। हारने पर पैसे देने पड़ेगे इसका कोई सवाल नहीं, क्योंकि राजा के पास बहुत धन है ¢ endr. कोई व्यक्ति पहचान नहीं पाया, आखिरकार पीछे थोड़ी हलचल हुई एक अंधा आदमी हाथ में लाठी लेकर उठ tomar उसने कह कह मह महgunagión के प ले चलो मैंने ब ब ह ह प प ह प कोई प प प प कोई प प प प प प प प प कोई कोई कोई कोई कोई कोई ह ह ह प ह ह प प प प प प कोई कोई कोई कोई कोई कोई ह ह ह ह कोई.
राजा को लगा कि इसे अवसर देने मे क्या हरज है। राजा ने कहा ठीक है! तो उस अंधे आदमी को दोनो चीजे छुआ दी गयी औecer उस आदमी ने एक मिनट में कह दिया कि यह हीरा है और ँा ँह जो आदमी इतने र को को जीतकर आया था, वह नतमस्तक हो गया और बोला सही।।।।।।।।।।।।। अंधे आदमी को बोला-आपने पहचान लिया धन्य हो आप। अपने वचन के मुताबिक यह हीरा मैं आपके ivamente र की कीatar सब बहुत खुश हो गये और जो आदमी आय mí वह राजा और अन्य सभी लोगो ने उस अंधे व्यक्ति से एक ही जिज्ञendr.
उस अंधे ने कहा कि सीधी सी बात है मालिक, धूप हम हम सब है।। मैने दोनो को छुआ जो ठंडा रहा वह हीरा जो गरम रहा ँा का ¿Está bien, está bien? अंधे को परख भी कैसे हो? अंधे के लिये दोनों पत्थर हैं। आंख फर्क लाती है। आंख में जौहरी छिपा है। तो खयाल ¢, अगर भक्ति की जिज्ञासा नहीं उठी है तो समझना कि अभी तुम जन्मे ही।।।।।।।।।।।।।।।।। अभी तुम गर्भ में ही पड़े हो। अभी तुम बीज ही हो। अभी अंकुरण नहीं हुआ। अभी जीवन की जो परम संपदा है, उसकी भनक भी तुम्हारे कानों में नहीं पड़ी।।।।।
सूर्य को देखने के दो उपाय हो सकते हैं। एक तो सीधा सूरज को देखो और एक दर्पण में सूरज को दो ह sigue " ¿? वह असली का धोखा है। वह असली की छायाँ है। इसलिये सूरज को देखने के दो ढंग हैं, यह कहना भी शायद ठीक नहीं, ढंग तो एक ही है-सीधा देखना। दूसरा ढंग कमजोरों के लिये है कायरों के लिये है। जो लोग शास्त्रों में सत्य को खोजते हैं वे कायर ंै ंै वे दर्पण में सूरज को देखने की कोशिश कर रहे हैं। दर्पण में सूरज दिख भी जायेगा तो भी किसी काम काथह छाया मात्र है। दर्पण के सूरज को तुम पकड़ न पाओगे। शास्त्र में जो सत्य की झलक मालूम होती है वह झलथै है लेकिन लोगों ने शास्त्र को सिर पर ominó यह दर्पण की पूजा चल रहीं हैं। सूरज को तो भूल ही गयें। और दर्पणों पर इतने फूल चढ़ा दिये हैं कि अब उनमें प्रतिबिंब भी बनत बनता। उन पर व्याख haba
सत्य को देखना हो तो सीधा ही देखा जा सकता इसलिये विवेकानंद कहते हैं भक्ति की जिज्ञासा इथथथथम विवेकानंद भी पहले भक्त हो चुके थे, ज्ञानी हो चुके थे शास्त्र निर्मित हो चुके।।।।।।।।।।।। विवेकानंद ने नहीं कहा कि चलो अब शास्त्रों में चलें औecer विवेकानंद ने कहा, हम अपने हृदय को साफ करें। भगवान मिलेगा तो वहीं मिलेगा शब्दों में नहीं, अपने अनुभव में मिलेगा। परमात्मा की झलक तो सब तरफ मौजूद है। और अगर तुम्हें वृक्षों में उसकी झलक नहीं दिखाई पड़ती तो तुम्हें शास demás में उसकी झलक भी दिखाई नहीं पड़ेगी।।।।।।।।।। क्योंकि शास्त्र में तो मुर्दा शब्द हैं।
इसलिये विवेकानंद जैसे ज्ञानी ने कहा है कि सत्य कह mí और कहने से ही झूठ हो जाता है। क्योंकि शब्द की चौखट बड़ी छोटी है, सत्य का विस्तार अनंत।। क्षुद्र शब्द के भीतecer बड़ी पुर gaso प्रेमी ने कहा मैं हूं तेरा प्रेमी। ¿Está bien? मेरी आवाज नहीं पहचानी? भीतर सन्नाटा हो गया। कोई उत्तर न आया। प्रेमी बेचैन हुआ। उसने कहा, क्या कारण है? ¿Está bien? प्रेमिका ने कहा इस घर में दो के लायक जगह नहीं है॥ या तो मैं, या तो प्रेम, घर में दो के लिये जगह नहहई ीै यह द्वार बंद ही रहेगा, जब तक तुम एक होकर न आओं।
प्रेमी वापस चला गया। कई दिवस आये गये, ऋतुयें आयी गयी गयी, बड़ी साधना की उसने बड़ा अपने को निखारा। शुद्ध किया, आग से गुजरा, कंचन हो गया, एक रात पूर्णिमा को प प्रेमिका के द्वार पर दस्तक दी, वहीं सवाल, कौन हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो कौन कौन कौन कौन कौन कौन सव सव सव. प्रेमी ने कहा, तू ही है। कबीर कहता है, द्वार खुल गये। भक्त कह दे परमात्मा से, कि बस तू ही है, मैं नहीं ह॥ यात्र पूरी हो गयी लेकिन अगर थोड़ा गौर से देखोगे तो जब तक तू का भाव है तब तक मैं का भाव मिट नहीं सकता। ¿Está bien? तू में सार marca अर्थ ही मैं के कारण है तू के पहले मैं है और जब प्रेमी ने कहा तू ही है और तब भीतर तो वह ज जानता है मैं कह कह ह va। हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं।। हूं हूं हूं मैं ही तो तू कहेगा?
इसलिये कबीर की तो कविता पूरी हो जाती है कि द्गख॰ इलु लेकिन मैं थोड़ी देर और बंद रखनok चाहूंगा अगर कबीर मुझे मिल जाये तो कहूंग कहूंगा कविता को थोड़ा और चलने कहल कहल कहल प् razón से जब जब तक है तब तब मैं मौजूद प razón दो अभी कचरा जल गया, कंचन बचा, अब कंचन को भी मिट जे० अशुद्धि गई, शुद्धि बची, पाप गय mí तब उसे व siguez तब प्रेमी जहां होगा, मगन होगा। अब प्रेमिका ही उसे खोजती हुई आयेगी प्रेमिका ही उसे आकर आलिंगन कर लेगी।
जिस दिन भक्त बिलकुल मिट जाता है। भगवान आता ही है। और मैं तुमसे कहता हूं, कि भक्त कैसे भगवान तक पहुंच सकता है? न तो तुम्हें उसका पता मालूम है, न ठिकाना। ¿Está bien? जाओगे तो कहां? तुम उसे खोजोगे कैसे? ¿Está bien? क्योंकि पहले तो कभी जाना नहीं। जब तुम शून्य हो जाओगे, वहां से उत्तरआता जैसे बूंद सागर में खो जाये। तुम शून्य हुये कि पूर्ण होने के अधिकारी तुम मिटे कि परमात्मा आया। क्योंकि दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। तू का क्या अर्थ है? मैं का क्या अर्थ है?
कबीर कहते हैं, हम तो एक एक करि जाना। न वहां कोई मैं है, न वहां कोई तू है। हमने तो एक को बस, एक ही तरह जाना। दोई कहै, तिनही को दोजख जिन्होंने दो कहा, वे नरऍथம वह नर्क में है। दो यानी नर्क, एक यानी स्वर्ग। वे ही दो कहते हैं जिन्होंने पहचाना नहीं। और जो दो कहते हैं, वे गहन नर्क में पडे़ रहते हैं। सीमा नर्क है। बंधे हुये अनुभव होना पीड़ा है। सब तरफ से दबे होना दुःख है। कुछ बचा है पाने को। जब तक सब कुछ न पा लिया गया हो। कुछ भी न बचे बाहर। तुम ऐसे फैल जाओ कि आकाश जैसे ढाक लो सारे अस्तिथ् कि फूल तुममें खिलें, चांद-तारे तुममें चलें। स्वामी ¢ चरण दास कहा करते थे कि मैंने ही चँाद-तारे बनाये। वह मैं ही था। जिसने चांद-तारों को पहले छुआ ऊंगली से और जीवन दिया और गति दी और चांद-तारे मुझमें ही घूमते।।।।।।।।।।।।। तो लोग समझते थे कि पागल है। ज्ञानियों को सदा लोगों ने पागल समझा है। बात ही पागलपन की लगती है।
जब स्वामी राम चरण दास अमेरिका गये और उन्होंने ये ही बातें वहां कही-तो वहां के लोगों ने उन्हें पागल कहा साथ ही वरिष्ठ व्यक्तियों ने कहा कि हम सभी हिंदुस्तान के पागलों से बहुत परिचित हैं। परन्तु हिंदुस्तान में यह चल जाता है। बातें हजारों साल से पागलों को सुनते-सुनते जो पागल नहीं हैं, वे भी कम से कम उनकी भाषा से परिचित हो गये।।।।।।।।।।। मानते है कि सधुक्कड़ी भाषा है। अपनी नहीं, साधुओं की है। कुछ सिरफिरे लोगों की है। तभी तो कबीर को कहना पड़ता है, कहैं कबीर दीवानों की है पागलों की है, मस्तों की है। मगर हमने इतने दिनों से सुनी है और हमने इतने मस्त पुरूष देखे हैं कि हम नासमझी में भी चाहे स्वीकार न करें, लेकिन अस्वीक भी क करते।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।। क। नहीं.
इसलिये हमारे ऋषियों ने कहा है कि जब भक्त अपना सब कुछ छोड़ देत mí जिसने अपने अहंकार को छोड़ा सब उसका हुआ। जिसने यहां गिर marca अपना अभिमान, जब बूंद समुद्र में डूब गई वह सब के भीतर सब के प्रagaण उसके प प् razón हो गया। रामकृष्ण परमहंस को मरने से पहले गले का कैंसर हो गया, तो बड़ा कष्ट था। भोजन करने में, पानी भी पीना मुश्किल हो गया था। गले से कोई भी चीज खाने में बड़ mí ¿Está bien? जगत् जननी को जरा कह दो। तुम्हारी वह सदा से सुनती रहीं हैं। इतना ही कह दो? रामकृष्ण ने कहा, तु कहत mí
¡Adelante! ¿Está bien? सभी कंठों से भोजन कर तो रामकृष्ण ने कहा, यह कंठ अवरूद्ध ही इसलिये हुआ थ mí अब मैं तुम्हारे कंठों से भोजन करूंगा। एक कंठ अवरूद्ध होता है, तो सभी कंठों के द्वार खुल जाते हैं। यहां एक अस्मिता बुझती है और सारे अस्तित्व की अस्मिता, सारे अस्तित्व का मैं भाव वही तो परमात्मा है।।।।।।।।।।।। वही अस्तित्व की अस्मिता तो कृष्ण से बोली है। सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज। ¿¿¿¿¿¿¿¿¿¿¿¿¿¿¿¿¿¿¿¿¿¿¿¿¿¿ यह कौन है मेरी शरण में? यह कोई कृष्ण नहीं है, जो सामने खड़े हैं। यह सारे अस्मिता, यह सारे अस्तित्व का मैं बोला हैहै क्योंकि तुम्हार marca
रवींद्रनाथ ने अपना एक संस्मरण लिखा, जो मुझे बड़ा ही प्रीतिकenas लगा। ऐसी पूर्णिमा की रात थी, रवींद्रनाथ नदी किना࠰े बे बै बै एक छोटा सा दीया जला कर किताब पढ़ रहे थे। बड़ी टिमटिमाती रोशनी थी। छोटा सा दिया था। और बाहर पूरा चांद खिला था पूर्णिमा की रोशशी ऀऀ ॰ो लेकिन कमरे के भीतर दीया टिमटिमा रहा था। उसकी मंदी सी रोशनी सारे कक्ष को रोशनी से मंदा कर ¢ थीं वह आधी र र तक पढ़ते-पढ़ते थक।।।।।।।।। दीये को फूंक मार कर बुझा कर किताब बंद की। तो वह चौंक के खडे़ हो गये और नाचने लगे। यह एक अनूठी सी घटना थी। उन्होंने सोचा भी न था ऐसा होगा। अभी तक पीला सा प्रकाश भरा था कमरे में। दीये को बुझाते ही द्वार से, खिड़कियों से से, रंध्र-corresponde
उस ¢ उन्होंने अपनी डायरी में लिखा, मैं भी कैसा पागल हूं! पूरा चांद बाहर खड़ा था अनूठी सुंदर ¢ enas बाहर प्रतीक्षा कर erm. है। चांद द्वार पर खड़ा है, खिड़की पर खड़ा है, रंध्र-correspontar और छोटा सा दीया बाधा बना है और उसकी वजह से भीतर मंदा प्रकाश भरा है जिसमें आंखें हैं, शीतल होतीं।।।।।।।।।।।।।।।। दीये के बुझते ही सब तरफ से रोशनी दौड़ पड़ी। भीतर जगह खाली हो गई। शून्य हो गई। चाँद आ गया नाचता हुआ। रवींद्रनाथ ने कहा, उस दिन मेरे मन में एक द्वार खुल गया, कि तक तक मेरे भीतर अहंकार का दीया जल रहendr जिस दिन यह दीया मैं फूंक मार कर बूझा दूंगा, उसी बह बह नाचता भीतर आ जायेगा। फिर नाच ही नाच, आनन्द ही आनन्द, उत्सव ही उत्सव है॥ फिर इस उत्सव का कोई अंत नहीं होता।
जिन्होंने दो कहा, वे नर्क में है। कबीर का यह वचन एक बहुत प्रसिद्ध वचन है, जिसमें उन्होंने कहा है- दूसरे की मौजूदगी नरक है।।।।।।।।।।। तो क्या करें? ¿Está bien? एकांत में हो जायें, जहां दूसरा न हो? न पत्नी हो, न पति हो, न बेटा हो। बहुतों ने यह प्रयोग किया है। भागे हैं हिमालय की कंदराओं में ताकि अकेले हो जेहो जेय क्योंकि दूसरा नरक है। लेकिन तुम भाग कर भी अकेले न हो पाओगे। क्योंकि तुम्हारा मैं तो तुम्हारे साथ ही चला ताॾय तुम अपना तु तो यहीं छोड़ जाओगे और ध्यान रखो, जहां मैं हूं, वहां तू है। वह सिक्का इक्टठा है। तुम आधा-आधा छोड़ नहीं सकते। अगर मैं तुम्हारे साथ गया तो तू भी तुम्हारे साथ गॾ जल्दी ही तुम अपने को ही दो हिस्सों में बांट कecer
अकेले में लोग अपने से ही बात करने लगते है। मैं और तू दोनों हो गये। अकेले में लोग ताश खेलने लगते हैं। खुद ही दोनों तरफ से बाजी बिछा देते है। उस तरफ से भी चलते हैं, इस तरफ से भी चलते हैं। इतना ही नहीं, उस तरफ से भी धोखा देते हैं, इस तरफ से भी धोखा देते है किसको धोखा दे रहे हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो हो अकेले मे लोग कल्पना की मूर्तियों में जीने लगहै है उनसे चर्चा करते हैं, बात करते हैं, तो तू मौजूद हा ाो ाो य क्योंकि मैं तो केंद्र है सारी भीड़ का भीड़ तो ितह तुम जहां जाओगे, तुम भीड़ में रहोगे। तुम अकेले नहीं हो सकते। हिमालय का एकांत शून्य नहीं बनेगा। अकेलापन रहेगा ही। और अकेलेपन और एकांत में बड़ा फर्क है। अकेलेपन का अर्थ है, लोनलीनेस और एकांत का अर्थ है अलोननेस, अकेलेपना का अर्थ है, कि दूसरे की चाह मौजूद।।।।।।।।।।।। दूसरे की वासना मौजूद है। तूम चाहते हो कोई आ जायें। तुम अपनी हिम siguez शायद कोई मनुष्य थोड़ी खबर ले आये नीचे के मैदानों की, कि क्या हुआ? ¿? शायद कोई अखबार का एक टुकड़ mí मन तुम्हार marca
र sigueal अब चील कितने ही ऊपर उड़े, नजर तो उसकी नीचे कचरे-घर में लगी रहती है। जहां मरे चूहे पड़े हो, मांस का टुकड़ा पड़ा हो, फेंकी गई मछली पड़ी हो।।।।।।। हो हो हो हो हो आकाश में नजर तो घूरे पर लगी रहती है। तुम हिमालय पर बैठ जाओ। कोई फर्क नहीं पड़ेगा। नजर घूरे प debe उस पहाड़ के आसपास औ debe जैसे चील की नजर मरे हुये चूहों पर लगी रहती है। तुम अपने को तो साथ ही ले जाओगे। तुम ही तो तुम्हारे होने का ढोंग हैं।
रामकृष्ण ने देखा कि वह चील उड़ रही है चूहे को लेकर और बहुत सी उस उस पर झपटृा मार ¢ है है।।।।।।।। कौवे दौड़ गये है। बड़ा उत्पात मच गया है आकाश में। वह चील बचने की कोशिश कर रही है। लेकिन और गिद्ध आ गये हैं और सब तरफ से उसको टोचे जा ¢ है वह भ भागती है, बचना चाहती है।।।।।।।।।। उसके पैरों पर लहू आ गया है। तब क्रोध की अवस्था में वह भी किसी गिद्ध पर झपटी और मुंह से चूहा छूट गया। चूहे के छूटते ही सारा उपद्रव बंद हो गया। कोई वे चील के पीछे पड़े नहीं थे। बाकी गिद्ध और चीलें और कौवे वे चूहे के पीछे पड़े जैसे ही चूहा छूटा वे सब चले गये। अब वह थकी चील वृक्ष पर बैठ गई। रामकृष्ण कहते है कि मुझे लगा, शायद थोड़ी उसे समढ़ है चूहा सारी भीड़ को ले आया था।
तुम्हारे मैं में तुम हिमालय चले ज mí सब भीड़ आ जायेगी। तुम्हारा मैं भीड़ को खींचता है। तुम मैं, को छोड़ दो बाजार में बैठे रहो, वहीं हिमालय हो जायेगा। तुम्हारी दूकान तुम्हाisiones मैं का चूहा भर छूट जाये। फिर कोई चील हमल mí तुमसे किसी का कुछ लेना-देना नहीं है। वह तुम्हारा मैं ही तुम्हारे उपद्रव का कारण है। ¿? किसी ने तुम्हें कभी नीचा दिखाया नहीं। ¿Está bien? ¿Está bien? नहीं तुम्हारे मैं की स्तुति की गई। जैसे ही मैं गया सारी भीड़ गिर जाती है निंदाकों की, स्तुति करने वालों की, मित्रों की, शत्रुओं की, अपनो की, पर marca की द अदर इज।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।। श sigue. द गो इज द हेल। गहरे पर विश्लेषण करने पर तो पता चलेगा कि दूसरा तो तुम्हारे कारण है।।।।।। इसलिये दूसरे को क्या नर्क कहना। वह नर्क मालूम पड़ता है। वस्तुतः मैं ही नर्क है। अहंकार ही नर्क है।
एक ही पवन है चाहे कैलाश में, चाहे काबा में। एक ही पानी है, च siguez और चाहे छोटे से मिटृी के दीये में औecer इस एक को पहचानो। इस एक को जीओ। इस एक में रमों। एक को ही गुनो। इस एक को ही साधो। इस एक को ही ध्यान बनाओ।
और एक ही मिटृी है जिससे सब तरह के घड़े गढ़े गयइ है कुम्हार चक्के पर रखता जाता है वही मिटृी। अलग-अलग रूप देता चला जाता है रूप का भेद है। नाम का भेद है। मूल का तो जरा भी भेद नहीं है। अस्तित्व का तो जरा भी भेद नहीं है। कोई स्त्री है, कोई पुरूष है। भीतर सब एक है। कोई गोरा है, कोई काला। कोई हिंदू है, कोई तुर्क है। कबीर कह sigue. वही एक उपाय था। लकड़ी में अग्नि छिपी है। काष्ठ में अग्नि छिपी है। जब बढ़ई काटता है लकड़ी को तो लकड़ी ही कटती है, अग्नि नहीं कटती है। कबीर यह कह रहे है, ऐसे ही तुममें वह एक छिपा है। जब मौत तुम्हें मारती है, तो लकड़ी ही कटती है। अग्नि नहीं कटती। जब बीमारी तुम्हें पकड़ती है, तो लकड़ी को ही पकड़ती है, अग्नि को पकड़ती पकड़ती।
जब जवान बूढ़ा होता है तो लकड़ी ही बूढ़ी होती है, अग्नि बूढ़ी नहीं होती। कबीर यह कह रहे है। ऐसे ही तुममें कहां वह एक छिपा है। चाहे तुम्हें पता न हो। क्योंकि तुमने रगड़ok ही नहीं कभी और जिन्होंने रगड़ा अपने आप को उन्होंने जाना। रगड़ने का अर्थ है, जिन्होंने थोड़ा साधा, उन्हजथनाााा जिन्होंने भीतर के रूप को बाहर प्रकट कर के देखा, उन्होंने जाना। उन्होंने भीतर की अग्नि को पहचान लिया और तब वे जानते है, कि सभी लकडि़यों मे एक ही अग्नि छिपी।।।।।।।। लकड़ी के रूप अलग-अलग होंगे। आग का रंग-ढंग एक। आग का स्वभाव गुण एक। जिसने ऊपर-ऊपर से पहचाना वह शायद सोचता हो, सब अततलथ่ जिसने भीतर से पहचाना, ये एक ही मिटृी के बने है।
इसलिये तो कृष्ण अर्जुन से कहते हैं, '' ना हन्यते हन्यमाने शरीरे '' शरीर कटेगा फिर भी वह नहीं कटता। नैनं छिदंति शस्त्रणि नैनं दहति पावकः न तो मुझे शस्त्र छेद सकते हैं और न मुझे आग जला सकती है।।।।। शरीर ही कटेगा, मैं नहीं कटता हूं। तू भी नहीं कटेगा शरीर ही कटेगा। ये जो युद्ध के मैदान में आकर खड़े हो गये लोग हैं, इनकी काष्ठ की देह कटेगी, अग्नि नहीं।।।।।।।।।।।।।।।
और जब तुम्हें यह दिख गया कि भीतर की ज्योति अखंड है, भीतर के प्रaga शाश्वत सनातन।।।।।।।।।। दीया मिट जायेगा, ज्योति नहीं मिटेगी। शरीर गिरेगा प्राण ज्योति सदा रहेगी। इसलिये अपने अन्दर के मैं को मिटना पड़ता है। अहंकार को गलना पड़ता है। और तब स्वयं को पहचानने की क्रिया करनी होती है। तब उस परमात्मा से एकाकार होता है। तब अन्दर छिपी अखंड ज्योति स्वरूप वह अग्नि प्रज्वलित होती यह तभी सम्भव है जब हम अपने अन्दर के मैं को मार डाले और अपने अन्दर अपने ईष्ट, गुरू व उस परमात्मा के प्रति श्रद्धा, विश्वास भक्ति को जाये जिससे तुम्हारा जीवन अजस्त्र अखंड गंगा की तरह निर्मल होकर बहता रहे।
Sadgurudev más respetado
Sr. Kailash Shrimali
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