पुराणों में एक सुन्दर प्रसंग आया है कि भगवद् पूज्यपendrza शुकदेव मुनि ने तर्क दिया कि संन्यास और गृहस्थ बिल्कुल अलग-अलग पक्ष हैं और गृहस्थ व्यक्ति अपनी ही चिंताओं में खोया रहता है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है इस कारण यह संभव नहीं है कि गृहस्थ जीवन में ivamente संन suptan इस पर वेद-व्यास ने कहा कि राजा जनक महान् मनीषी है उनके पास ज sigue.
शुकदेव जी ¢ ज जनक के यहां पहुंचे और अपना परिचय दिया तो राजा जनक ने उन्हें दरबार में बुला लिया। वहां देखा तो बड़ा ही अद्भुत दृश्य पाया, राजा जनक सुन्दरियों के बीच आमोद-प्रमोद कर रहे थे उनकी कई रानियां, दासियां थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी द. राजसी वस्त्र पहने संगीत, नृत्य का आनंद ले रहे थेेेे ¿Está bien?
आखिर उनसे रहok नहीं गया और उन्होंने ¢ र va जनक से पूछ ही लिया 'आप कैसे संन्यासी हैं, आप उपदेश कुछ देते हैं, और आपके जीवन में यह यह व्यवहाendr कुछ स स स है।।।।।।।।।।।।।।।।।।। eléctrica यह सब कुछ अजीब लग रहा है। आप को विदेह राज कहा जाता है। विदेह राज का अर्थ है जो अपनी देह से परे हो। संसार में लिप्त न हो। शुकदेव मुनि ने कह कह कि आपको सारे ऋषि-मुनि सम्मान करते हैं, और ज्ञानियों में आपको सσternador मैं यह बात समझ नहीं प sigue. आपका गुणगान करते हैं अन्यथा मुझे तो यहां संन्यास जैसा कुछ भी दिखाई नहीं दे ivamente ह है।।।।।।। है। राजा जनक ने कहा कि आप थक गये हैं। पहले भोजन कर लें, विश्रija कर लें, उसके बाद संन्यास इत्यादि की चर्चा करेंगे।
दूसरे दिन प्र marca र जनक पूछ पूछा कि भोजन और विश्रaga में कोई कमी तो नहीं।।।।।।।।। मुझे विश्वास है कि आपने भोजन औecer इस पर शुकदेव मुनि अत्यंत क्रोधित हो उठे और बोलें कि भोजन तो बहुत अच्छा था लेकिन अपने सिर के ऊपर एक तलवार बांध खी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी थी वह भी एक पतले से ध siguez भोजन स्वादिष्ट कैसे लग सकता था तथा विश्रagaम के समय भी सिर के ऊपर तलवार लटक रही थी।।।।।। इस कारण एक क्षण भी नींद नहीं ले पाया, पूû ध्यान तलवार की और केन्द्रित था।
राजा जनक मुस्कुरा दिये और बोलें कि कल जो आपने प्रश्न पूछा था, उसका यही उत्तर है।।।।। मैं जीवन में सारे आमोद-प्रमोद करता हूं लेकिन सदैव इस बात का ध्यान ivamente हूं कि मेरे ऊपर यमराज की तलवार लटकी है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है हुई हुई है है हुई हुई हुई हुई हुई eléctrico eléctrico इसलिये मैं पूर्ण निष्ठा के साथ राज-काज चलाता हूंूंूंू र sigueal अतः मैं किसी भी प्रकार की तृष्णा में लिप्त नहीं होता हूं। संसार के सारे राग-nada देखते हुये भी मन को इन सब से अलग हने देता हूं। हूं।।।।।।।।। मन को वासना, तृष्णा, भोग, विलास इत्यादि में लिप्त नहीं होने देता हूं।।।।।।। यह सुन कर शुकदेव मुनि को ज्ञान आया और उन्होंने कहा कि आप मुझे संन्यास धर्म का ज्ञान दीजिये।।।। तब balteado जनक ने कहा संन्यास जीवन का दूसरा नाम है जोकि गृहस्थ जीवन में रहकendr
व sigue. और मनुष्य उन बंधनों के रूप में मोह, कामना, वासना में इतना अधिक लिप्त हो जाता है कि उससे परे हट कर वह जीवन देख ही नहीं सकता।।।।।।।।। सकत सकत।।। सकत।। सकत। नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं ही objetivo
मोह और तृष्णा ईश्वर की दी हुई एक ऐसी क्रिया है, जिससे मनुष्य इस माया रूपी संसाtern मनुष्य इसमें इतना अधिक लिप्त हो गय mí कर्म को ही जीवन कहा गया है। जब तक कर्म कर्तव्य से जुड़ा रहतok है, तब वह वह कर्म सात्विक होता है, और जीवन संन्यस्त कहलाता है। है है। है। है लेकिन जब आसत्तिफ़ से जुड़ जाता है तब मनुष्य स्वंतत्र नहीं हो पाता और वह प्रपंचो के अधीन हो जाता है।जब इन बातों से मनुष मनुष्य ऊपर उठता है तबर्मशील बनत है है है है है है है। है है है।।। है है है है है है है। है है है। है है है है है है है है है है है है है है है है है है है।।।।।।।। जीवन का उद्देश्य ही स्वतंत्रता प्राप्त करना हैहै अपनी इच्छा से जीवन का प्रत्येक क्षण जी सके इसी को संन्यास कहा गया है।।।।।
संन्यास भी एक प्रकार से कर्म का ही स्वरूप है। व्यक्ति के पिछले जन्मों के कर्म व्यक्ति के साथ प्रagaendo.
जब जीवन प्रagaप्त हुआ है तो जीवन में कई प्रकार के संयोग-वियोग हैं हैं, हर संयोग-वियोग किसी कार p. जब व्यक्ति म siguez व्यक्तित्व में 'स्व' का विकास होता है, बहिर्मुखी भाव समाप्त होकecer यही संन्यस्त भाव है, जीवन चक्र से मुक्त होना जीवन से भागना नहीं।।।।।।।।।।।। कर्म भाव से ही संन्यास प्राप्त हो सकता है।
इसीलिये हजारों वर्षो पूर्व महर्षि पाराशर ने संन्यास, संन्यासी और जीवन के दस नियम बताये है।।।।।। ये नियम व्यवहार में लाने योग्य नियम है। और जो व्यक्ति इन नियमों क mí इसीलिये महर्षि पार marca कहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति गृहस्थ संन्यासी बन सकता है।।।।
सार्व भौमिक सत्य, ज्ञान कर्म और धन का प्रवाह, ज्ञान कर्म और धन की दिशा, फल की प्राप्ति, नम्रता और शौर्य, प्रभावशाली नेतृत्व, श्री से युक्त, स्त्री शक्ति का जागरण, सरस्वती और शक्ति-संगठन, आत्मीयता संन्यासी ही गृहस्थ रूप में समाज में रहकर उपरोक्त दसों सिद्धांतों का निर्वहन कर सकता है। संन्यासी भी साधक होता है। और गृहस्थ साधक भी संन्यासी होता है। क्योंकि साधना का तात्पर्य ही जीवन में निश्चित सिद्धांत अपनाकर भौतिक और आध्यात quir
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