एक दिन बुद्ध सुबह-सुबह अपने भिक्षुओं के बीच गये, तो हाथ में एक रेशम का रूमाल ले रखok था। फिर बैठ गये स siguez रूमालबदल गया या वही है?
निश्चित ही कठिनाई हुई होगी। क्योंकि यह कहना भी गलत है कि रूमाल बदल गया। क्योंकि रूमाल बिलकुल वही है। गांठ पड़ने से रूमाल के स्वभाव में रत्ती भर भी अंतर नहीं पड़ा। जितना था, जैसे था, वैसा ही रूमाल अभी भी है। लेकिन यह कहना भी उचित नहीं है कि रूमाल बिलकुल नहीं बदला, क्योंकि तब रूमाल खुला था, अब गांठों से घिरा है।।।।। इतनी बदलाहट जरूर हो गई है।
तो एक भिक्षुक ने खड़े होकर कहा, बड़ा कठिन सवाल छू रूमाल लगभग बदल गया है। बदला भी नहीं है और बदल भी गया है। बदला नहीं है अगर हम इसके स्वरूप को देखें और बदल गया है, अगर हम इसके शरीर को देखे।।।।।।।।।। नही बदला है, अगर इसकी आत्मा हम समझे बदल गया है, अगर इसकी देह को हम देखे।।।।।।।।।।।। नहीं बदला है भीतर से, लेकिन बाहर से गांठ लग गई है और बदलाहट हो है।।।।।।।।।।।।।।।। आकार बदल गया है, आकृति बदल गई है। नही बदला है, अगर हम इसके परम स्वभाव को समझे, लेकिन बदल गया है, अगर हम इसके व demás यवह।।।।।।।।।।।।।।।।।।। क्योंकि जो रूमाल खुला था, वह काम में आ सकता था, जिस ¢ ूम में पांच गांठे लग, वह काम में भी नहीं सकत ।ा।।।।।।।।।।।।।।। ho वह रूमाल भी नहीं कहा जा सकता था, क्योंकि रूमाल तो किसी उपयोगिता का नाम था।
ध्यान रहे, हम जब किसी चीज को काई नाम देते हैं तो वह उपयोगिता का नाम होता है।।।।।।। मजबूरी होगी, कठिनाई होगी भाषा में, इसलिये जब उपयोगिता नहीं होती है, तब भी हम वही नाम देते।।।।।।।।।।।। जैसे समझें, पंखा आप करते हैं गर्मी में, तो आप हैं हैं पंखा। लेकिन जब पंखा रखा हो, तब उसको पंखा नहीं कहना पंखा का मतलब हुआ जिससे हवा की जा रही है। लेकिन जब रखा है तब तो हवा नहीं की जा रही है। तो उसे पंखा नहीं कहना चाहिये।
पैर वे है जिनसे आप चलते हैं। लेकिन जब आप नहीं चलते हैं, तब उन्हें पैर कहना नहीं चाहिये। फंक्शनल, उनका क्रिया का नाम होना चाहिये। लेकिन कठिन हो ज siguez इसलिये काम चलाते है।
तो पंखे को दो अर्थ होते हैं, पंखा वह जिससे हवा की जाती है या जिससे हवा कि जा सकती है, दोनों अर्थों में प्रयोग करते हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं जिससे हवा हो सकती है, जिसमें संभावना छिपी है। रूमाल का कोई उपयोग है, उसमें कुछ बांधा जा सकता है लेकिन जो रूमाल खुद ही बंधा हो, उसमें अब कुछ नहीं बांधा जा सकता। तो बुद्ध ने कहा, एक और सवाल मुझे पूछना है और वह यह कि मैं इस ivamente
और ऐसे कह कर बुद्ध ने रूमाल के दोनों छोर पकड़ क र जोर से खींचना शुरू कर दिया। गांठें और छोटी हो गई और बारीक होकर कस गई।
¡Adelante! जो आप कenas हे हैं, उससे तो रूमाल और बंध जायेगा और खोलना कठिन हो जायेगा। तो ने कहा, एक बात जाहिर बुद्ध हो गई कि कुछ भी करने से ivamente मैं कर रहा हूँ। लेकिन तुम कहते हो ऐसा करने से रूमाल और बंधता जह ाह ाह ¿Está bien?
तब एक भिक्षुक ने कहा, पहले जानना होगा की गठान कैसे बंधी।। क्योंकि जब तक ग siguez तो पहले देखना होगा की गांठ बंधी कैसे जो बंधने का ढंग है है, उसके विपरीत ही खुलने का ढंग होता है और जब तक हमें पता न हो कि बंधने का ढंग क्या है, तब तक ना कुछ कxto बेहत sigue क्योंकि करने से जाल और उलझ सकता है, गांठ और मुश्किल हो है है है है सुलझा और कठिन हो सकता है।।।।।।।।।।
हमारी चेतना पर भी गांठे हैं और स्थिति यह है कि हम बिलकुल बदले नहीं है और बदल गये है।।।।।।।।।। हम sigue, स्वभाव ठीक वैसा ही है जैसा परम ब्रह्म का, लेकिन हम पर कुछ गांठे हैं।।।।।।।। और वे गांठें जब तक न खुल जाये, तब तक हम उस परम स्वभाव का अनुभव नहीं कág.
निर्ग्रंथ शब्द बड़ा कीमती है। ब् Est. इतना ही अंतर है। पर गांठ कैसे लगी है और क्या है, इसके स्वरूप को समझ लेना जरूरी है
'अपनी आत्मा में ही सब वस्तुओं का आभास केवल आरोपित है, उसको दूर करने से स्वयं ही पूर्ण अद्वैत और क्रिया-शून्य परब्रह्म बन जाता है।। '
गांठ जब रूमाल पर लगती है तो बाहर से कहीं ¿Está bien? ¿Está bien? शुद्ध गांठ आपने कभी ¿ जब भी देखी होगी किसी चीज पर होगी, अकेली गांठ कहीं भी नहीं हो सकती।
तो गांठ आई कहाँ से? ¿Está bien? रूमाल में कोई गांठ न थी अभी क्षण भर पहले, तो उसके भीतर से कैसे आ सकती है है है है है है है है है है है बाहर से आई नहीं, क्योंकि बाहर कभी गांठ पाई नहतऀं जाॾ न बहार से है है, न भीतर से आई है है, ominó निर्मित का अर्थ यह है कि रूमाल के स्वभाव में नहीं थी, रूमokल ने अenas की है।।।।।।।।।।।।।।।।।
संसार जो है हमारा अर्जन है, एचीवमेंट है। हमने बड़ी चेष्टा करके निर्मित किया है। हमने बड़े उपाय किये है, तब निर्मित किया है। गांठ होती नहीं कहीं अस्तित्व में, रूमाल ने बड़ी चेष्टा करके अपने ऊपर आरोपित की है।।।।।।। इस चेतना में जो कुछ भी दिखाई पड़ता है, वह आरोपण है Ver más
मनुष्य की जो चेतन mí मनुष्य की जो आंतरिक चेतना है वह दenas की भांति है, उस पर कुछ भी बनता नहीं। लेकिन मनुष्य के पास एक यंत्र है मन का। मन बिलकुल फोटो प्लेट की तरह है, उस पर जो भी बन जाता है वह पकड़ जाता है। सच तो यह है कि मन पर अगर न पकड़े, तो मन की उपयोगित mí मन एक यंत्र की तरह है जो भी उसके सामने होता है सही या गलत वह सब कुछ पकड़ता है।।।।।।।।
आत्मा में कोई चीज प्रवेश नहीं करती है, मन में चीजें चीजें प्रवेश करती है।।।।।।।। तो जब तक हम मन को को हट mí यह पता नहीं चलेग mí लेकिन मालूम होता था कि मैं शरीर हूँ, क्योंकि मन में चित्र बना हुआ था कि मैं शरीर हूँ, वही चित्र आत्मा झलकत झलकता था।।।।।। favoría न था लोभ, न था क्रोध, न था काम लेकिन मन में सब था और मन के सारे चित्र भीतर झलकते थे।।।।।।।। और इतने दिनों से झलकते थे और इतने अनंत काल से झलकते थे, कि स्वाभाविक है यह भ्रagaंति हो जानी कि वह झलक नहीं है, प्ع नहीं है मे मे सguna वभ है।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।
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